गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कुछ ग़ुम अनमोल लम्हे......

ना जाने किस धुन में था मैं उस दिन
आग-ए-गुमाँ रिश्तों को तपाया मैंने
बदकिस्मती में खाली हाथ बैठा था
एहसास का वो अज़ीज़ पल गवाया मैंने
वो जिन्हें मोतियों की माला बना सजाना था
उनकी आँखों से उन अश्कों को बहाया मैंने
वो नाराज़ हो के भी तलाशते रहे मुझको
बे-गैरती में कोई रिश्ता न निभाया मैंने
रुखसती का हर लम्हा उन्हें सालता सा था
उन्हें और जलाने खुद को छुपाया मैंने
कुछ वक़त बाद एहसास हुआ दीदा-दिलेरी(१) का
दस्त-बसता(२) फ़रियाद दिल को मनाया मैंने
इक डर सा दिल में था की वो माफ़ न करे
पर हिम्मत कर उसकी तरफ क़दम बढ़ाया मैंने
अपनी तरफ आता देख वो उठ के जाने लगे ऐसे
अपनी आँखों में खुद को गिरा नुमाया मैंने
पलकें झुकी और खुद में जैसे ही सिमटा
उन्हें अपने ही करीब खडा पाया मैंने
अब फर्क ये था अश्क थे दोनों की आँखों में
अश्कों के दरिया में खुद को डूबा पाया मैंने
इक बार फिर साबित हुआ वो कितना चाहते हैं
खुद को उन सा बनाने का वादा खुद से बनाया मैंने
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(१) शर्मनाक हरकत (२) हाथ जोड़ कर
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