गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

दूरियों के मौसम...

जाने हम किसी बात पे ज़रा मुस्कुरा क्या दिए
उन्हें लगा बगैर उनके सुकूँ से जी रहे हैं
बदनसीब हैं उन्हें बता भी नहीं सकते
हर लम्हा ज़हर के घूँट पी रहे हैं
उस एक वाहिद आखिरी मुलाक़ात में कहा था
फौत हो जाएंगे तुझ से दूर हो के हम
बदक़िस्मती से न ज़िंदगी मिली न वफ़ात
रूह के ज़ख्मों को क़तरा क़तरा सी रहे हैं
या तो मर जाते तेरे ग़म में या इंतज़ार करते
किसी एक बला को ही बस चुनना था
मरते तो तेरा दीदार सितारों से नोश करते
ज़िंदा हैं बस इसी तवक़्क़ो में जी रहे हैं
कोई ऐसी रात नहीं गुज़रती जिसमें तेरा सपना ना हो
कोई दिन नहीं गुज़रता जब तेरा एहसास अपना ना हो
इस मुस्कान के पीछे ज़ख्म जो अभी हरे से हैं
सुर्ख रखने को खुद को मेरा लहू पी रहे हैं
मरते दम तक तेरी राहों में पलकें बिछाए
धीमी आँच पर तेरी मोहब्बत की लौ जलाये
बस करूंगा तसव्वुर तेरी आहटों का ताउम्र
कभी दूरियों के मौसम एक से नहीं रहे हैं
कभी दूरियों के मौसम एक से नहीं रहे हैं!