प्रिय दोस्तों,
आप सभी को नव वर्ष २०११ की शुभ-कामनाएं!
काफी दिनों के बाद मैं फिर से अपने वियोग-रस के साथ हाज़िर हूँ! आशा करता हूँ आपको मेरी ये रचना पसंद आएगी! शीर्षक है, "कभी न था"
आज जा के जाना उस मुहब्बत की मजाज़त(१) को,
कि मैं तेरा हमसफ़र कभी न था,
भीड़ में हूँ पर लगता है ऐसा,
आज से पहले ऐसा सहर(२) कभी न था,
ठंडी हवाएं जिस से छन के सुलाती थीं मुझे,
उस से खूबसूरत एह्साह का शजर(३) कभी न था,
और अब आने से उनके आँखों में खूं उतरता है,
तेरे ख़्वाबों का भी ऐसा कहर कभी न था,
हर इमारत मुझे गुफ्तार(४) नज़र आती है,
तेरे दिल में तो शायद मेरा घर कभी न था,
वक़्त ने उस क़ज़ा(५) के दर ला छोड़ा मुझे,
जिस कब्रस्तान में हसरतों का शहर कभी न था!
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(१)मोह-जाल (२) उजाड़ (३) पेड़ (४) ये कहती हुई (५) मौत
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