शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

"मफर सी रिहाइश"

ना जाने क्यों वो मुझ से दूर हैं
इक पल उनके बिना बिताया नहीं जाता
उनकी यादें ही अब साँसों की कासिम(१) हैं
वर्ना रिश्ता-ए-ज़िंदगी निभाया नहीं जाता
उनकी गलियों में मफर(२) सी रिहाइश में हैं
हू-ब-हू उनसा कोई साया नहीं आता
रात होते चाँद में नज़र गड़ सी जाती है
जाने क्यों उनका रुखसार नुमाया(३) नहीं जाता
हार कर क़दम मयखाने मोड़ लेते हैं
वहाँ भी गम-ओ-मय मिलाया नहीं जाता
हर रोज़ उनके लिखे कागज़ के कतरों में
चाह कर भी खुद को गुमाया नहीं जाता
हर लफ्ज़ उनका जीने की उम्मीद सा है
हज़ारों बार पढ़ लूं कुछ मेरा जाया नहीं जाता !!

(१) बांटने वाली (२) खानाबदोश (३) प्रतीत होना

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

मुश्क-ए-जज़्बात

उन्होंने चेहरे पे जुल्फें यूं बिखरायीं


जैसे सावन की गर्त काली रात हुई हो

नूर-ए-चश्म झांकता सा गेसुओं के चिलमन से

जैसे सुर्ख बादलों से उसकी बात हुई हो

इक पल को ही जो उनके दीदार हो जाएँ

लगे ज़िन्दगी की मुकम्मल सौगात हुई हो

जो झटक दें जुल्फों से पानी के कुछ कतरे

यूं लगे रिमझिम मुहब्बत की बरसात हुई हो

नज़र उठा के देख लें जो वो झरोखों से

क़दमों में जैसे झुकी झुकी कायनात हुई हो

उनके रुखसार की रौशनी से ही उजाला है

जो ढक ले कभी तो दिन में मानो रात हुई हो

खुदा ने भी शायद उन्हें शिद्दत से तराशा है

मानो सबसे काबिल शिल्पी से उसकी बात हुई हो

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कुछ ग़ुम अनमोल लम्हे......

ना जाने किस धुन में था मैं उस दिन
आग-ए-गुमाँ रिश्तों को तपाया मैंने
बदकिस्मती में खाली हाथ बैठा था
एहसास का वो अज़ीज़ पल गवाया मैंने
वो जिन्हें मोतियों की माला बना सजाना था
उनकी आँखों से उन अश्कों को बहाया मैंने
वो नाराज़ हो के भी तलाशते रहे मुझको
बे-गैरती में कोई रिश्ता न निभाया मैंने
रुखसती का हर लम्हा उन्हें सालता सा था
उन्हें और जलाने खुद को छुपाया मैंने
कुछ वक़त बाद एहसास हुआ दीदा-दिलेरी(१) का
दस्त-बसता(२) फ़रियाद दिल को मनाया मैंने
इक डर सा दिल में था की वो माफ़ न करे
पर हिम्मत कर उसकी तरफ क़दम बढ़ाया मैंने
अपनी तरफ आता देख वो उठ के जाने लगे ऐसे
अपनी आँखों में खुद को गिरा नुमाया मैंने
पलकें झुकी और खुद में जैसे ही सिमटा
उन्हें अपने ही करीब खडा पाया मैंने
अब फर्क ये था अश्क थे दोनों की आँखों में
अश्कों के दरिया में खुद को डूबा पाया मैंने
इक बार फिर साबित हुआ वो कितना चाहते हैं
खुद को उन सा बनाने का वादा खुद से बनाया मैंने
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(१) शर्मनाक हरकत (२) हाथ जोड़ कर
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रविवार, 17 जुलाई 2011

एहसास..........

चन्द रोज पहले उन से मुलाकात ने
कुछ ऐसा निशान दिल पे छोड़ दिया
यूँ लगा बिस्मिल्ला कर इलाही ने
दो अरवाहों(१) को इक दूजे से जोड़ दिया
वो मुझ में और मैं उन में
कुछ इस कदर से गुम थे हो गए
बस आगोशी की खुश्बू इन्तिशार(२) हुई
और शर्म-ओ-हया का चिलमन तोड़ दिया
क़रीबियत का एहसास रश्क-ए-जिनान(३) सा था
यकायक खुद को तेरी बाहों में तोड़ दिया
निकला था घर से खुदा की बन्दगी करने
मोहब्बत के फरिश्तों ने तेरी ग़ली मोड़ दिया
तू दूर है मुझसे फिर भी सांसों में रिहाइश है
तेरी तपिश के सिवा ना खुद को कुछ और दिया
यादों की नीव पे तामीर(४) ख्वाबों का घरौन्दा
आज मिल गया और महलों को मैने छोड़ दिया
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(१) आत्माओं (२) फैलना (३) जन्नत जैसा (४) खडा किया हुआ
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बुधवार, 18 मई 2011

किसी ख़ास के लिए....

तू मेरी चाहत का यूं ही इम्तेहान न ले ओ ज़ालिम
तेरे दिल में समंदर सा प्यार न भर दूं तो कहना
कुछ ऐसा कर दूंगा की आकिबत(१) में तू ढूंढे मुझे
बाहों में टूटने को मजबूर न कर दूं तो कहना
ये जो सज संवर के निकलते हो दिखावटी चिलमन ओढ़े
इसे फ़ाज़िल(२) निगाहों से तार-तार न कर दूं तो कहना
अभी तो तुझ से रू-ब-रू ही करता रहता हूँ मैं
इक दिन इज्तेमा-ए-महफ़िल(३) इज़हार न कर दूं तो कहना
तेरी हर ख्वाहिश को पूरा करने की कोशिश में
दिखता तो जो बस एक है, वो चाँद चार न कर दूं तो कहना
तू तो बस मुझे वो नादिर(४) मुहब्बत के दो फूल दे दे
उन्ही दो फूलों से दामन गुलज़ार न कर दूं तो कहना
जो तू साथ न छोड़े ता-उम्र मेरा ए मुश्फिक(५)
मौत के फ़रिश्ते को भी इनकार न कर दूं तो कहना
इतनी कशिश है मेरी मुहब्बत की तासीर में
दूर हो के भी तुझ पे असर न कर दूं तो कहना!

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(१) पुनर्जन्म (२) तेज़, शातिर (३) हजारों लोगो की भीड़ (४) खूबसूरत (५) दोस्त
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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

अनमोल कर दिया!

प्रिय मित्रो,
सादर नमस्कार!
आज लगभग डेढ़ महीने बाद कुछ लिखने का मौका मिला, असल में इतना व्यस्त था की अपने आप को भी वक़्त नहीं दे पा रहा था!
पेश-ए-खिदमत है आप सब के आशीर्वाद को व्याकुल मेरी एक नयी रचना, आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी!

मुझे याद है वो दिन जब पत्थर था मैं
और कोई राहगीर मुझे खरीदता नहीं था
जी रहा था मुफलिसी की ज़िन्दगी पल पल घटती
किसी रहबर का दिल भी कभी पसीजता नहीं था
हर रोज़ शाम दरख्तों की आड़ में छुप कर
हस्सास(१) निगाहों से तुझे निहारा करता था
तेरी इक नज़र की कशिश की महक को ही
अपने दिल की गहराइयों में उतारा करता था
फज़ल से वो पल भी आया उस दिन ज़िन्दगी में
तुने छुआ मुझे हलके से और फिर बात की
ऐसा लगा किसी हूर ने छड़ी घुमाई और
अमावस सी ज़िन्दगी में पूनम की रात की
तेरे होटों की छुअन ने तो जैसे
कडवे ज़हर भी शीरे का घोल कर दिया
मैं मिटटी का ज़र्रा था बेकार तूने
खरीद कर मुझे लिल्ला अनमोल कर दिया
बस आखिरी सफ़र भी अब आशिकाना हो जाए
तेरी मेरी कहानी इश्क का अफसाना हो जाए
सांस टूटे तो टूटे तेरी बाहों की आगोश में
खुदाया मौत भी मेरी फिर शायराना हो जाए

(१) भावुक

शुक्रिया!

मंगलवार, 8 मार्च 2011

औरत हूँ मैं....

प्रिय मित्रो,
सादर प्रणाम, पहले तो आज नारी दिवस के मौके पे मेरे सभी महिला ब्लॉगर सहभागी मित्रों को विशेष सत्कार!
काफी दिन हो गए थे, व्यस्तता के कारण कुछ लिखने का वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था, आज ज़रा फ्री हुआ तो सोचा की मौका भी अच है, दिन भी अच्छा है तो क्यों न नारी के अस्तित्व पे कुछ लिखने की गुस्ताखी कर लूं, सो लिख दिए दिल के भाव!
आशा करता हूँ आप सभी अपने आशीर्वाद से अभिभूत करेंगे!

शीर्षक है: "औरत हूँ मैं...."


औरत हूँ मैं....

पैदा हुई तो किसी के यहाँ दिवाली,
और किसी के यहाँ रात काली,
कहीं सवालों के जवाब बनी,
और कभी खुद ही बन गयी सवाली,

औरत हूँ मैं....


कभी दो बहनों के होते भी मिला प्यार,
कभी अकेली थी भाइयों में तो भी तिरस्कार,
कभी मिल गया सब कुछ बिन मांगे ही,
कभी खुद पे भी न जता पायी अधिकार,
 
औरत हूँ मैं....


कभी पढ़ लिख के ऊंची मंजिल पायी,
कभी चूल्हों चौकों से न निकल पायी,
जहां कष्ट हज़ारों झेले थे कभी,
ज़रा सुख मिला तो भी न निगल पायी,
 
औरत हूँ मैं....


कभी माँ बाप को दोस्त समझ सब कह गयी,
कभी डरती सहमती सी चुप रह गयी,
कभी हसरतें उम्मीदें पूरी हुईं,
कभी बिन बोले ही सब कुछ सह गयी,
 
औरत हूँ मैं....


कभी कल्पना बन चाँद पे जा बैठी,
कभी बर्तन धोते तश्तरी को चाँद बना बैठी,
कभी सपनो ने अरमानो के पंख लगाए,
कभी दबे हुए अरमान भी भुला बैठी,
 
औरत हूँ मैं....


बेटी, बहन और माँ भी मैं हूँ,
तपती धूप में ठंडी छाँ भी मैं हूँ,
अत्याचारों की आग में जलती जो है,
जहाँ रहते हो वो भारत माँ भी मैं हूँ,
 
औरत हूँ मैं....


हर रूप में ममता की मूरत हूँ मैं,
जग जननी सृष्टि की ज़रुरत हूँ मैं,
दो क़दम आओ तो चार क़दम मैं आऊँ,
रब के बाद रब की ही सूरत हूँ मैं,
 
औरत हूँ मैं....औरत हूँ मैं....औरत हूँ मैं....!

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

अँधेरे का एहसास न हो!

अभी कुछ दिन ही हुए तुम दूर गए,

लगता है अरसो से तुम पास नहीं हो,

गाहे-बगाहे सासें भी रुक रुक के आती हैं,

जैसे इन्हें भी तेरी साँसों बिना जीने की आस नहीं हो,

तुझ पे लिखी हुई बंदिशों का पुलिंदा उठाया,

सोचा पढ़ लूं तो दूरियों का एहसास नहीं हो,

ज़ालिम हर लफ्ज़ की तासीर ने यूं घायल किया,

जैसे उन्हें मेरी तन्हाईयों का एहसास नहीं हो,

कुछ और पन्ने पलटे तो इक सूखा गुलाब दिखा,

फिर याद आया अरे ये तो वही पहला गुलाब है,

जो डर डर के तुम्हें देने को तुम्हारी सहेली को दिया था,

दूर झरोखे से तुम्हें यूं देख रहा था जैसे,

नज़रें उठाने की भी हिम्मत पास नहीं हो,

तुमने फूल लिया और मैं दौड़ कर ऊपर के कमरे में गया,

छोटे से मंदिर में घी का दिया जलाते हुए,

रब को हाथ बांधे शुक्रिया करते हुए कहा,

भले ही मिलाना हज़ारों से पर ध्यान ये रखना,

के कोई तुम जैसा खासम-ख़ास नहीं हो,

खुशकिस्मती है आप ज़िन्दगी का हिस्सा हैं,

जो कभी भी ख़त्म न हो ऐसा एक किस्सा हैं,

इंतज़ार में हूँ तुम जल्द आओ और अपने रुखसार से,

कुछ यूं रौशन करो की गर्त में भी अँधेरे का एहसास नहीं हो!

बुधवार, 12 जनवरी 2011

केश सिक्खां लई सब तों वड्डी दात!

कल शाम मैं गुरबाणी विचार सुन रहा था तो सिख पंथ के महान कथा-वाचक भाई पिंदरपाल सिंह जी ने एक कथा सुनाई! यह कथा जो आजकल केशों(बालों) की बे-अदबी कर रहे हैं सिख भाई, उनके लिए प्रेरणा है! मैं पूरा तो नहीं सुन पाया लेकिन जो सुना वही आप सभी के सन्मुख रख रहा हूँ!

गुरु गोबिंद सिंह जी जब औरंगजेब के खिलाफ लड़ाई कर रहे थे तो एक मुस्लिम जिसका नाम बुद्धू शाह था औरंगजेब का साथ छोड़ के गुरु साहिब के साथ मिल गया क्योंकि उसके मुताबिक़ गुरूजी सच की लड़ाई लड़ रहे थे, एक एक कर के दोनों ओर से लोग शहीद हो रहे थे और इस भाई बुद्धू शाह ने अपने दोनों जवान बेटों को भी लड़ाई के लिए गुरु जी के सुपुर्द कर दिया! लड़ाई में बुद्धू शाह के दोनों बेटे भी शहीद हो गए, जब ये बात गुरु जी को पता चली तो उनका दिल भर आया और उन्होंने बुद्धू शाह के पास जा के कहा, "बुद्धू शाह, आज तेरे दोनों बेटों ने सच के लिए कुर्बानी दी है, मांग आज तो तुझे माँगना है", उस वक़्त गुरु गोबिंद सिंह जी अपने केशों में कंघा कर रहे थे, तो बुद्धू शाह ने कहा की आपको अगर इतना ही तरस आया है मुझ गरीब पे तो आप मुझे अपना कंघा और उस में लगे हुए केश दान कर दो, इतना सुनते ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने, कंघे समेत केश, बुद्धू शाह की झोली में डाल दिए!

जब बुद्धू शाह घर आया तो उसकी बेगम नसरीन ने पूछा की मेरे बेटे कहाँ हैं, इस पर बुद्धू शाह ने जो जवाब दिया वो उन सभी सिक्खों के लिए एक सबक है जो अपने केश कटाते हैं और अपने आप को गुरु का सिख कहलवाते हैं!

बुद्धू शाह ने कहा, "नसरीन, मैं अपनी ज़िन्दगी के सब से बड़ी कमाई, सब से बड़ी कीमती चीज़ अपने बेटे, गुरु गोबिंद सिंह को सौंप आया हूँ, और गुरु गोबिंद सिंह की सब से कीमती चीज़, उनके केश, अपने साथ ले आया हूँ"

इतना प्रेम करते थे गुरु गोबिंद सिंह जी अपनी सिक्खी से, और आज न जाने क्या हो गया है, फैशन के चक्करों में पड़ कर सिख अपने केशो की बे-अदबी करने से भी नहीं चूकते! गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्खी के लिए अपने चारों बेटे कुर्बान कर दिए और आज हम उनकी दी हुई सिक्खी को ही नहीं संभाल पा रहे हैं!

वाहेगुरु हम सब पापियों को सद-बुद्धि दें!

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह!

सोमवार, 3 जनवरी 2011

माँ तुझे सलाम!

वक़्त भी न जाने कैसे बदल जाता है....जब हम छोटे थे और कोई हमारी बात नहीं समझता था, तब सिर्फ एक ही हस्ती थी जो हमारे टूटे फूटे अल्फाजों को भी समझ जाती थी, और आज हम उसी हस्ती से कहते हैं, "आप नहीं जानती", "आप नहीं समझ पाएंगी", "आपकी बातें मुझे समझ नहीं आती", "लो अब तो आप खुश हो न", इस आदरणीय शख्सियत की इज्ज़त करें, इस से पहले की ये साथ ख़त्म हो!

सख्त रास्तों में भी आसान सफ़र लगता है,

ये मुझे मेरी माँ की दुआओं का असर लगता है,

एक मुद्दत से मेरी माँ सोयी नहीं है,

जब से मैंने एक बार कहा था, माँ-मुझे डर लगता है!