मंगलवार, 2 जुलाई 2013

कुछ अनछुए पहलू!

तन्हाइयों में घिरा कुछ सुकून की तलाश में
सोचा इक खामोश सा कमरा ढूंढ लूं मकान में
खुशकिस्मती से इक कोठरी मिली जिसे खोला तो देखा
उसमें मेरे बचपन का हर लम्हा बिखरा हुआ है
ये लम्हे अब मेरी तन्हाइयों के हमसफ़र हैं
जिन्हें ना जाने कब से किस किस हवा ने छुआ है
जब समेटने लगा मेरी लिखी कुछ नज्मों की परतें
पाया हर एक पुलिंदा दूसरे से चिपका सा हुआ है
मानो कह रहा हो जुदाई के डर  से वो मुझ से
ना कर अलग साँसों का रिश्ता जुड़ा हुआ है
सोचा था ये पन्ने मेरी हाजत-रवाई(१) करेंगे
पर इन्होने तो वादा-ए-वफाई किया हुआ है
काश हम भी इन पुराने कतरों नुमाँ (२) होते
जो रवायत (३) समझ खुदा ना बनाते बनाते खुद को
अफ़सोस बड़ी देर लगी ये हकीकत समझने में
की क्या खुदा भी कभी किसी एक का हुआ है

शब्दार्थ : (१) एक दूसरे को समझना (२) की तरह (३) परंपरा