सोमवार, 25 अप्रैल 2011

अनमोल कर दिया!

प्रिय मित्रो,
सादर नमस्कार!
आज लगभग डेढ़ महीने बाद कुछ लिखने का मौका मिला, असल में इतना व्यस्त था की अपने आप को भी वक़्त नहीं दे पा रहा था!
पेश-ए-खिदमत है आप सब के आशीर्वाद को व्याकुल मेरी एक नयी रचना, आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी!

मुझे याद है वो दिन जब पत्थर था मैं
और कोई राहगीर मुझे खरीदता नहीं था
जी रहा था मुफलिसी की ज़िन्दगी पल पल घटती
किसी रहबर का दिल भी कभी पसीजता नहीं था
हर रोज़ शाम दरख्तों की आड़ में छुप कर
हस्सास(१) निगाहों से तुझे निहारा करता था
तेरी इक नज़र की कशिश की महक को ही
अपने दिल की गहराइयों में उतारा करता था
फज़ल से वो पल भी आया उस दिन ज़िन्दगी में
तुने छुआ मुझे हलके से और फिर बात की
ऐसा लगा किसी हूर ने छड़ी घुमाई और
अमावस सी ज़िन्दगी में पूनम की रात की
तेरे होटों की छुअन ने तो जैसे
कडवे ज़हर भी शीरे का घोल कर दिया
मैं मिटटी का ज़र्रा था बेकार तूने
खरीद कर मुझे लिल्ला अनमोल कर दिया
बस आखिरी सफ़र भी अब आशिकाना हो जाए
तेरी मेरी कहानी इश्क का अफसाना हो जाए
सांस टूटे तो टूटे तेरी बाहों की आगोश में
खुदाया मौत भी मेरी फिर शायराना हो जाए

(१) भावुक

शुक्रिया!