मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

मुश्क-ए-जज़्बात

उन्होंने चेहरे पे जुल्फें यूं बिखरायीं


जैसे सावन की गर्त काली रात हुई हो

नूर-ए-चश्म झांकता सा गेसुओं के चिलमन से

जैसे सुर्ख बादलों से उसकी बात हुई हो

इक पल को ही जो उनके दीदार हो जाएँ

लगे ज़िन्दगी की मुकम्मल सौगात हुई हो

जो झटक दें जुल्फों से पानी के कुछ कतरे

यूं लगे रिमझिम मुहब्बत की बरसात हुई हो

नज़र उठा के देख लें जो वो झरोखों से

क़दमों में जैसे झुकी झुकी कायनात हुई हो

उनके रुखसार की रौशनी से ही उजाला है

जो ढक ले कभी तो दिन में मानो रात हुई हो

खुदा ने भी शायद उन्हें शिद्दत से तराशा है

मानो सबसे काबिल शिल्पी से उसकी बात हुई हो