मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

ज़िंदगी से इक मुलाक़ात !

ये गुस्ताखियाँ हैं तेरी जुल्फों में क़ैद ओस की बूदों की
जिनके महासल(1) बने दरिया ने मुझे इक नज़्म लिखा दी 
तेरे सजदे में ग़ुम हो के जो पलकें मूंदी मैंने 
उस एहसास ने ही मुझे नफीस(2) जन्नत दिखा दी 
गेज़ाल(3) सी तेरी आँखों की शोखी ने यकायक 
ख़्वाबों से जगा साकी बिन मुझे मय सी पिला दी 
तेरे आँचल की इक लहर जो वीरानो से निकली थी कभी 
ना जाने कितनी उस ने क़ब्रों में सोयी रूहें ज़िला दीं 
तेरे क़दमों की आहट जैसे खनकते घुंघरुओं ने 
बाखुदा सहराओं(4) में भी मस्त इक महफ़िल खिला दी 
इल्तेजा है खुदा से तेरी नज़र-ए-इनायत हो मुझ पे 
यूं लगेगा मुझे के खुदा ने ज़िंदगी मिला दी!

(1) परिणाम स्वरुप (2) जगमगाती (3) हिरनी जैसी (4) रेगिस्तान 

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी पर पढने में थोड़ी मुश्किल !

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  2. मैं भी निशा जी की बात से सहमत हूँ ......पढ़ने में लय बहुत अच्छी है ....पर शब्दों के साथ अर्थ होते तो और भी अच्छा होता


    सिफत को बहुत बहुत आशीष

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  3. बहुत उम्दा गज़ल लिखी है आपने!
    लिखते रहिए, रवायत बनी रहती है!

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  4. तेरे क़दमों की आहट जैसे खनकते घुंघरुओं ने
    बाखुदा सहराओं(4) में भी मस्त इक महफ़िल खिला दी
    इल्तेजा है खुदा से तेरी नज़र-ए-इनायत हो मुझ पे
    यूं लगेगा मुझे के खुदा ने ज़िंदगी मिला दी!
    Wah! Kya kahne! Gazab kee rachana!

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  5. आपकी कविता मन के संवेदनशील तारों को झंकृत कर गई। मेरी कामना है कि आप अहर्निश सृजनरत रहें। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। न्यवाद।

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  6. क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
    मेरी नई रचना
    प्रेमविरह
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

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    धन्यवाद
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  8. बहुत सुंदर रचना
    ऐसी रचना कम ही पडने को मिलती है।
    शुभकामनाएं



    नोट:
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  9. बहुत ही उम्दा रचना है ,बधाई .....

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