शनिवार, 12 दिसंबर 2009

ना जाने किस तरह!

कल तेरे कूचे से गुज़रा मैं इक अजनबी की तरह,
सोचा था मैं तो न होऊंगा उन सभी की तरह,
जो चक्कर लगाते हैं की रुखसार का नज़ारा हो,
पर तू ग़ुम रहती है परदा-नशीं माहजबीं की तरह,
मेरी शोरिशी(१) का आलम ये है तेरी चौखट पे हूँ,
दरमान(२) ले के तू आए हकीम-ऐ-नबी की तरह,
तेरी दुज्दीदा नज़र(३) ने मेरा ये हाल किया है,
कभी ऐसा न था जो अब हूँ मैं अभी की तरह,
फ़रियाद इलाही से करू बोह्तात(४) इतनी न बढ़ जाए,
खून के कतरे आँखों में जम जाएँ सूखी हुई नदी की तरह!

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(१) पागलपन (२) दवा (३) शर्मीली नज़र (४) दरकिनार
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5 टिप्‍पणियां:

  1. कल तेरे कूचे से गुज़रा मैं इक अजनबी की तरह,
    सोचा था मैं तो न होऊंगा उन सभी की तरह,

    बढ़िया गजल है जी
    हर अशआर खूबसूरत है!

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  2. Khuda na kare kisee kee aankhon me khoon ke qatare jam jayen!
    Shashtri ji se sahmat hun...sab ashar behtareen hain!

    Bikhare sitarepe comment ke liye tahe dilse shukriya!

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  3. Thanks a lot for sharing such a wonderful and thought provoking poem. It inspired me to write a poem that I would like to share here:

    शुरू हुआ ये सिलसिला ना जाने किस तरह
    मै हुई खुद से दूर ना जाने किस तरह,
    वो बीते लमहे यूँ ही सताते है
    जिनसे मै बिछड गई ना जाने किस तरह |

    कभी सोचा वो अपने हैं
    तो अगले ही पल में पराए हुए,
    मैं डोर पकड़े बैठी रही
    जिस के किनारे टूट गए ना जाने किस तरह |

    ना सोचा कैसा सिलसिला होगा
    ना समझा यूं ही दिल पे छोड़ दिया,
    कुछ पता ना चला मुझे
    मैं कैसे खुद से दूर हुई इस तरह |

    जब समेटती हूं उन हसीन पलों को
    तो आखें भर आती हैं,
    तनहाई मुझे पुकारती है
    अपने आगोश में लेती है जिस तरह ।

    सपनों में दीदार होता है
    वो खाब बन कर साथ रहता है,
    देखती हूं बंद आखों से तो
    दूर हो कर भी करीब है जिस तरह ।

    अब तो बस मैं हूं और खामोशी
    ये मीलों का फासला है,
    हम सफर में तो हैं
    पर जाने कयूं रासता नाराज़ सा है ।

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