प्रिय मित्रों,
अपनी इस हास्य कविता की पहली पंक्ति मेरी नहीं है सो बहुत ही आदर के साथ मैं आप सभी से आज्ञा ले कर इसे प्रकाशित करना चाहूँगा! तो पेश-ए-खिदमत है, मेरी एक नयी हास्य कविता, आशा करता हूँ आप सभी को पसंद आएगी!
खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है,
खुशनसीब हैं वो कुड़ियां नियामत पा ही जाती हैं,
बदनसीब हैं वो लड़के जो राह चलते छेड़ें उन्हें,
गाहे बगाहे किसी न किसी की शामत आ ही जाती है,
बच जाते हैं जो खाली चप्पलें खा कर,
तन्हाई में चैन की सांसें लेते होंगे,
गलती से भी जो हत्थे चढ़ जाएँ इनके,
पीछा करते हुए ज़लालत आ ही जाती है,
ऊपर से गर तीन चार तगड़े भाई हो उनके,
फिर तो भैया क्या कहने धुनाई के,
अम्बुलेंस की ज़रूरत भी नहीं पड़ती है,
जनता अस्पताल पहुंचा ही जाती है,
या तो हुस्न-ओ-अदा हमें भी दे ए खुदा,
या छीन ले इन लड़कियों से भी,
चाकू उठाने की हिम्मत भले न हो,
क़त्ल करने की ताक़त आ ही जाती है!