मंगलवार, 2 जुलाई 2013

कुछ अनछुए पहलू!

तन्हाइयों में घिरा कुछ सुकून की तलाश में
सोचा इक खामोश सा कमरा ढूंढ लूं मकान में
खुशकिस्मती से इक कोठरी मिली जिसे खोला तो देखा
उसमें मेरे बचपन का हर लम्हा बिखरा हुआ है
ये लम्हे अब मेरी तन्हाइयों के हमसफ़र हैं
जिन्हें ना जाने कब से किस किस हवा ने छुआ है
जब समेटने लगा मेरी लिखी कुछ नज्मों की परतें
पाया हर एक पुलिंदा दूसरे से चिपका सा हुआ है
मानो कह रहा हो जुदाई के डर  से वो मुझ से
ना कर अलग साँसों का रिश्ता जुड़ा हुआ है
सोचा था ये पन्ने मेरी हाजत-रवाई(१) करेंगे
पर इन्होने तो वादा-ए-वफाई किया हुआ है
काश हम भी इन पुराने कतरों नुमाँ (२) होते
जो रवायत (३) समझ खुदा ना बनाते बनाते खुद को
अफ़सोस बड़ी देर लगी ये हकीकत समझने में
की क्या खुदा भी कभी किसी एक का हुआ है

शब्दार्थ : (१) एक दूसरे को समझना (२) की तरह (३) परंपरा

15 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है, बहुत सुंदर
    बहुत सुंदर

    उत्तराखंड त्रासदी : TVस्टेशन ब्लाग पर जरूर पढ़िए " जल समाधि दो ऐसे मुख्यमंत्री को"
    http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/blog-post_1.html?showComment=1372748900818#c4686152787921745134

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  2. बहुत बढ़िया ग़ज़ल पेश की है आपने।
    --
    लिखते रहिए!
    हम पढ़ते रहेंगे।।

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  3. पर इन्ही यादों के सहारे की जरूरत भी होती है ...
    लाजवाब नज़्म है ...

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  4. ये लम्हे ही तो ज़िन्दा रखते हैं...
    बहुत सुन्दर रचना..

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  5. बहुत सुन्दर ..कितना कुछ कह दिया ... शब्दों में.

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  6. वाह...
    मुझे मेरा लगता है खुदा...तुझे तेरा लगता होगा....
    बेहद खूबसूरत...

    अनु

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  7. बढ़िया अभिव्यक्ति ..
    बधाई !

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  8. भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  9. काश हम भी इन पुराने कतरों नुमाँ होते .....

    बहुत खूबसूरत रचना...मन को गहरे तक छूने वाली....

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