सोमवार, 10 अगस्त 2009

बन न पाया काजी!

इश्क के क़ल्मे पढ़ पढ़ बैठा न बन पाया काजी,

उम्रो उम्र मदीने फिर के न बन पाया हाजी,

तेरे जानिब सजदे करके न जित पाया बाजी,

तलवारों के महरम सदके न बन पाया गाजी,

सूखे फूलों की तासीर को न कर पाया ताज़ी,

हाथों में दिल रख भी तुझको न कर पाया राज़ी,

हिना-ऐ-मुल्हिद भी न तेरे हाथों पर थी साजी,

बिन तेरे मेरी रूह भी कर गई मुझ से दगाबाजी!

11 टिप्‍पणियां:

  1. waisi to poori nazam hi behtarin , alatarin hai par is line ne khas prabhavit kiya:

    "तलवारों के महरम सदके न बन पाया गाजी,"

    badhai...

    ab milna julna to laga hi rahega...

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  2. तलवारों के महरम सदके न बन पाया गाजी,
    waise to poori nazm hi behtarin hai alatarin hai par is she rne atyadhik prabhvit kiya...

    ...aana jana to laga rahega...

    ...aabhar !!

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  3. हिना-ऐ-मुल्हिद भी न तेरे हाथों पर थी साजी,

    बिन तेरे मेरी रूह भी कर गई मुझ से दगाबाजी!

    बहुत सुन्दर !

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  4. इश्क के क़ल्मे पढ़ पढ़ बैठा न बन पाया काजी,
    उम्रो उम्र मदीने फिर के न बन पाया हाजी,

    वाह जी वाह.......!!

    सूखे फूलों की तासीर को न कर पाया ताज़ी,
    हाथों में दिल रख भी तुझको न कर पाया राज़ी,

    बहुत खूब ......!!

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  5. इश्क के क़ल्मे पढ़ पढ़ बैठा न बन पाया काजी,
    उम्रो उम्र मदीने फिर के न बन पाया हाजी,
    लाजवाब आपको बहुत ब्हुत बधाई

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  6. अपूर्व रचना सामर्थ्य है ...और विलक्षण कल्पना शक्ती ,तथा शब्दों का चयन !

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  7. हिना-ऐ-मुल्हिद भी न तेरे हाथों पर थी साजी,
    बिन तेरे मेरी रूह भी कर गई मुझ से दगाबाजी!
    छंद और ख्याल का बहुत अच्छा संगम....
    पढ़ा कम गुनगुनाया ज्यादा..
    खूबसूरत..

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  8. इश्क के क़ल्मे पढ़ पढ़ बैठा न बन पाया काजी,

    उम्रो उम्र मदीने फिर के न बन पाया हाजी,

    वाह...वाह....
    कविता के प्रतीक अनोखे हैं।
    लिखते रहें।

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  9. उम्रो उम्र मदीने फिर के न बन पाया हाजी
    तेरे जानिब सजदे करके न जित पाया बाजी
    ..................................
    बिन तेरे मेरी रूह भी कर गई मुझ से दगाबाजी

    bahut achi panktiyan hain sir...
    kyun aisa sochte ho..
    aapne jiti hain aur bhi bahut baji..
    aur abhi to rahe zindagi main jitni hai na jane kitni aur baji..

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