मंगलवार, 28 जुलाई 2009

धुआं उठता है कहीं....

कहीं दिल में धुआं उठा....लगा के अरमान जलने लगे,
आंसुओं का सैलाब उठा....लगा के ज़ख्म पिघलने लगे,
अब तक जो दबाये रखे....दिल की गर्त गहराईयों में,
ख्वाब रूह तक जला गए....फफोलों की तरह निकलने लगे,
चाहत-ऐ-सुकून के जानिब....ख़ुद को सर्द पानी में धकेला,
बदनसीबी की इन्तेहाँ हुई....ज़ख्म मुझ ही को निगल्ने लगे,
खुदा ने भी रुख फेर लिया....मुझे मरते को न बचाने आया,
दोज़खी नुमाइंदे सर उठा....गोया ही मुझे लिए चलने लगे!

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