सोमवार, 27 दिसंबर 2010

कभी न था!

प्रिय दोस्तों,

आप सभी को नव वर्ष २०११ की शुभ-कामनाएं!

काफी दिनों के बाद मैं फिर से अपने वियोग-रस के साथ हाज़िर हूँ! आशा करता हूँ आपको मेरी ये रचना पसंद आएगी! शीर्षक है, "कभी न था"

आज जा के जाना उस मुहब्बत की मजाज़त(१) को,

कि मैं तेरा हमसफ़र कभी न था,

भीड़ में हूँ पर लगता है ऐसा,

आज से पहले ऐसा सहर(२) कभी न था,

ठंडी हवाएं जिस से छन के सुलाती थीं मुझे,

उस से खूबसूरत एह्साह का शजर(३) कभी न था,

और अब आने से उनके आँखों में खूं उतरता है,

तेरे ख़्वाबों का भी ऐसा कहर कभी न था,

हर इमारत मुझे गुफ्तार(४) नज़र आती है,

तेरे दिल में तो शायद मेरा घर कभी न था,

वक़्त ने उस क़ज़ा(५) के दर ला छोड़ा मुझे,

जिस कब्रस्तान में हसरतों का शहर कभी न था!

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(१)मोह-जाल (२) उजाड़ (३) पेड़ (४) ये कहती हुई (५) मौत

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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

शीला की जवानी!


मित्रो,

बहुत दिन हो गए मैं कुछ लिख ही नहीं पाया, असल में ऑफिस में व्यस्तता इतनी हो गयी थी की मौक़ा ही नहीं मिला और ऊपर से कोई टोपिक ही नहीं मिल पा रहा था, मैंने सोचा कुछ लीक से हट के लिखूं, वैसे मैंने एक आध बार हास्य में गोता लगाने की कोशिश की लेकिन पता नहीं सफल हुआ या नहीं! चलो अभी एक हॉट टोपिक मिला जिसे मैंने व्यंग के साथ कुछ सच्चाइयों से भी जोड़ने की कोशिश की है!

नाम है "शीला की जवानी", आशा करता हूँ आप को पसंद आएगी और आप अपनी अति मह्हत्व्पूर्ण टिप्पणियाँ दे के हौसला-अफजाई करेंगे!


काफी दिनों से व्यस्त था

बोरियत भी थी भगानी

समझ आया नहीं किस पे लिखूं,

न किस्सा कोई न कहानी

शुकर है बॉलीवुड वालों का

टॉपिक दे दिया लिखने को

वाह क्या खूबसूरत टॉपिक दिया
नाम शीला की जवानी
राखी सावंत से शुरू हुआ

आइटम सॉन्ग का दौर तूफानी

कटरीना भला क्यों मना करे

उसे भी है किस्मत चमकानी

क्या मादक सा नृत्य किया

बाकी भरेंगी पानी

वाकई हिला के रख दिया

वाह रे शीला की जवानी

क्या मुन्नी और क्या शीला

हिट होने की सबने ठानी

चूल्हे में जाए संस्कृति भले

करेंगे अपनी मनमानी

पढ़ा पढ़ाया सब भूल गए

ये वक़्त ही है शैतानी

माँ बाप भले रूठे ही रहे

महबूबा मुझे है मनानी

ये देख क्या तूने कर डाला

पिला के फिरंगी पानी

मकसद में कामयाब हुई

वाह रे शीला की जवानी

दिल्ली की मुख्यमंत्री जी को भी

याद आ गयी नानी

कुछ ऐसी प्रतिक्रिया थी उनकी

जब देखी शीला की जवानी!

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

नजाकत आ ही जाती है!

प्रिय मित्रों,
अपनी इस हास्य कविता की पहली पंक्ति मेरी नहीं है सो बहुत ही आदर के साथ मैं आप सभी से आज्ञा ले कर इसे प्रकाशित करना चाहूँगा! तो पेश-ए-खिदमत है, मेरी एक नयी हास्य कविता, आशा करता हूँ आप सभी को पसंद आएगी!

खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है,

खुशनसीब हैं वो कुड़ियां नियामत पा ही जाती हैं,

बदनसीब हैं वो लड़के जो राह चलते छेड़ें उन्हें,

गाहे बगाहे किसी न किसी की शामत आ ही जाती है,

बच जाते हैं जो खाली चप्पलें खा कर,

तन्हाई में चैन की सांसें लेते होंगे,

गलती से भी जो हत्थे चढ़ जाएँ इनके,

पीछा करते हुए ज़लालत आ ही जाती है,

ऊपर से गर तीन चार तगड़े भाई हो उनके,

फिर तो भैया क्या कहने धुनाई के,

अम्बुलेंस की ज़रूरत भी नहीं पड़ती है,

जनता अस्पताल पहुंचा ही जाती है,

या तो हुस्न-ओ-अदा हमें भी दे ए खुदा,

या छीन ले इन लड़कियों से भी,

चाकू उठाने की हिम्मत भले न हो,

क़त्ल करने की ताक़त आ ही जाती है!

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

सपने....

सपने....
होश संभाले तो मां बाप ने सजाये,
बचपन से ही घोट घोट के पिलाये,
स्कूल में सब से अव्वल ही रहना,
ध्यान से पढना किसी से न कहना,
कितनी उम्मीदे है तुम से लगायी,
घनटो जाग के राते बितायी,
उन सब का दिल से तुम रखना खयाल,
करने तुम ही को हैं पूरे ओ लाल,
सपने....
अब अच्छी जिंदगी बिताने के लिये,
मोटी पगार की नौकरी पाने के लिये,
जैसे अमावास में चमकती सी रात हो,
ल्ग्जरी कार मिल जाये तो क्या बात हो,
इसी जदो-जहेद में हुये अपनो से दूर,
भीड में भी तन्हाईया भरपूर,
ऐश ओ आराम बस नाम के हैं,
अब लगता हैं किस काम के हैं,
सपने....
परिवार के भी फिर सजने लगे,
ख्वाहीशो के अंबार लगने लगे,
सब की मांगे भुनाने में,
उम्र गुजर गयी निभाने में,
अब समझा ये नाता तोडते नही,
आखिरी सांस तक पीछा छोडते नही,
कभी ख़ुशी कभी गम कह जाते हैं,
कभी पूरे अधूरे रह जाते हैं,
चलो चैन की नींद अब सो जायें,
काश सब के पूरे हो जायें,
सपने....

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

"इक अजनबी से दो बातें"

"इक अजनबी से दो बातें"

उस गुल-अन्दाम(१) अजनबी से इक बात,
एक खूबसूरत सा एहसास बन गयी,
तन्हाई के ज़ख्मो की मुदावा(२) माफिक,
मामूली सी जो लगती थी ख़ास बन गयी,
अधूरी सी थी जो दिल में इक ख्वाहिश,
परदाख्त(३) हुई और वो मेरे पास बन गयी,
हर पल मेरे लिए तेरी ये तवज्जो(४)
टूटती साँसों को जोडती सांस बन गयी,
इंतज़ार है कब मुलाक़ात होगी उस से,
ये दस्त-निगारी(५) मेरे जीने की आस बन गयी,
तुझे देखने की कशिश उस गनजीना(६) सी है,
जो मेरे सफ़र की सब से बड़ी तलाश बन गयी!
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(१) खूबसूरत (२) औषधि (३) पूर्ण (४) एहमियत (५) चाहत (६) खजाना

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सोमवार, 27 सितंबर 2010

नाक क्यों अडती है!

प्रिय मित्रो,
सादर नमस्कार!
कल शाम सोनी चैनल पर ३ idiots आ रही थी, मैं भी देख रहा था, उसी वक़्त मेरे एक मित्र ने एक टिपण्णी की, "किस करने में नाक क्यों अडती है?"
ऐसे शायराना अंदाज़ में उन्होंने ये बात कही थी की मैंने सोचा क्यों न अपने हाथ अब हास्य में आजमायें!
उन्ही की एक पंक्ति को ले कर मैंने एक कोशिश की है, आशा है आप सभी को पसंद आएगी!

शीर्षक: नाक क्यों अडती है!

कल शाम मैंने ३ idiots देखी,
एक dialouge सुनने को मिला,
ये किस करने में अक्सर,
नाक हमारी क्यों अडती है,
मन में सोचा रुक जा बेटा,
एक बार किस हो जाने दे,
फिर खुद ही तू देख लीजो,
कैसी खुमारी चढ़ती है,
ये किस तो बेशरम,
चीज़ ही कुछ ऐसी है,
भोले भाले इंसान को ही,
मोह-पाश में जकड़ती है,
और जो शुरू शुरू में,
ख़ुशी ख़ुशी किस करती थी,
थोडा वक़्त गुज़र जाए,
तो हर बात पे अकड़ती है,
बस इक किस के चक्कर में,
कर्जों में हूँ डूबा सा,
बे-गैरत ख्वाहिशों की ये,
लिस्ट तो हर पल बढती है,
किस करने के लालच में,
दुल्हन भी उसे बनाना पड़ा,
क्या करते कसमें जो दी थी,
फिर वो तो निभानी पड़ती है,
शादी से पहले लगते थे,
जो हरे सब्ज़ के बाग़ से,
उन्ही बागों में लगता है,
जैसे हरी भिन्डियाँ सडती हैं,
बेटी न कहते थकती थी,
शादी से पहले छोरी को,
वो माँ-बेटी हर घंटे में,
बिल्ली चूहों सी लडती हैं,
थका मांदा जब ऑफिस से,
सोफे पे आ के गिरता हूँ,
पूरे दिन की वो भरी बैठी,
मुझ पे भारी पड़ती है,
आहें भर भर सोचूँ मैं,
काश वो नाक अड़ी रहती,
ज़रा देर भी हो जाए,
तो शर्ट सूंघने बढती है,
किस कर के भैया मारा गया,
न करता तो अच्छा होता,
उस ज़िल्लत से मैं बच जाता,
जो रोज़ झेलनी पड़ती है,
जो रोज़ झेलनी पड़ती है!

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

एक खूबसूरत एहसास-मोहब्बत!

अक्सर लोगों को कहते सुना,
मामूली किसी के लिए,
और किसी के लिए ख़ास है,
देता किसी को ग़म कभी,
खुशियाँ नुमायाँ(१) भी करे,
जन्नत से भी खूबसूरत ये,
मोहब्बत का एहसास है,
एहसास वो जो ज़ख़्मी दिल को,
मसाफ़त-ए-ख्वाब(२) ले जा कर,
महसूस ये करवा दे के,
वो अब भी तेरे पास है,
एहसास वो जो फासलों में भी,
करीबियत की आब-ए-हयात बनकर,
रूहानियत से यूं मिला दे के,
लगे खुदा भी आस पास है!
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(१) प्रदर्शित (२) ख्वाबो की दुनिया में एक दिन का सफ़र
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

"उस बचपन से तू मिला दे मुझे"

प्रिय मित्रो,
आज की कविता मैं अपनी सभी महिला ब्लॉगर मित्रों को समर्पित कर रहा हूँ! जीवन के कुछ रोचक लम्हों को मैंने कविता में पिरोने की कोशिश की है, आशा करता हूँ की आप सभी को पसंद आएगी! हो सकता है की इस में अभी और गुंजाइश हो, तो सुझाव सादर आमंत्रित हैं!

"उस बचपन से तू मिला दे मुझे"

नाजों में पली और फूलो सी,
बाबुल के अंगना खेली मैं,
क्या माँ बाबा और क्या सखियाँ,
करती सब संग अठखेली मैं,
हर जिद मेरी पूरी होती,
लाडली जो थी अकेली मैं,
जब बढ़ने लगी औ सवाल उठे,
तो बन गयी माँ की सहेली मैं,
उड़ते लम्हों में वो पल आया,
दुल्हन से सजी थी नवेली मैं,
पल भर डोली में ऐसा लगा,
जैसे हो गयी फिर से अकेली मैं,
.
.
अगले दिन आँख खुली खुद को,
इक नयी जगह पाया मैंने,
ता उम्र यहीं पे बसेरा है,
दिल को ये समझाया मैंने,
पहले दिन ही अरमानो को,
ख़्वाबों का पंख लगाया मैंने,
पलकें मूंदी और पल भर में,
खुद को उड़ता पाया मैंने,
छोड़ पुराने रिश्ते - नए,
रिश्तों को अपनाया मैंने,
गुज़रते वक़्त के संग संग,
हर नया किरदार निभाया मैंने,
.
.
कितना अरसा बीत गया,
सब कुछ सपना सा लगता है,
मैं खुद में हूँ या हूँ भी नहीं,
तनहापन अपना लगता है,
रिश्तों में घिरी सी रहती हूँ,
खुद का वजूद कहीं ग़ुम तो नहीं,
आईना देख के बोले मुझे,
क्या हुआ तुम्हे ये तुम तो नहीं,
कोशिश करती हूँ हर लम्हा,
उम्मीदों को मैं निभा पाऊँ,
अपने नाज़ुक से कन्धों पे,
सुख दुःख का बोझ उठा पाऊँ,
.
.
फ़रियाद खुदा में करती हूँ,
कुछ पल का सुकून दिला दे मुझे,
इस जद्दो-जहद में खो जो गया,
उस बचपन से तू मिला दे मुझे,
उस बचपन से तू मिला दे मुझे!

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

तेरी पायल की छम छम!

दोस्तों,
मेरी पुरानी रचना "बेगाने हो गए" पढने के बाद मेरी एक मित्र ने कहा की आप इस बार कुछ ऐसा लिखिए जिस से अपनेपन का एहसास हो माने जब दो प्रेम करने वालों का मिलन हो रहा हो और प्रेमी अपने दिल की बात अपनी प्रेमिका को ज़ाहिर करे!
कोशिश की है मैंने की शायद मैं अपनी इस रचना के साथ इन्साफ कर पाऊँ, बाकी आप सभी की प्रतिक्रिया बताएगी!
तो पेश-ए-खिदमत है:

"तेरी पायल की छम छम"

कितने अरसे के बाद सुनी,
तेरी पायल की छम छम,
हर वक़्त इल्तेजा करते थे,
इंतज़ार हुआ है ख़तम,
तेरे चेहरे को हाथों में ले,
ठगे से रह गए हम,
इस नूरानी रुखसार के आगे,
चाँद भी पड़ गया नम,
दो नैना ये दरिया की तरह,
कहीं डूब न जाएँ हम,
दो लब ये गुलाब की पंखुड़ी से,
इस दिल पे ढाएं सितम,
एहसास तेरा जादुई सा,
पत्थर को कर दे नरम,
तू चलती फिरती नज़्म मेरी,
किस काम की है ये कलम,
हर सू तेरे सजदे में रहूँ,
चाहे सासें बची हों कम,
फ़रियाद खुदा से करता हूँ,
कभी जुदा न हों बस हम!

सोमवार, 19 जुलाई 2010

बेगाने हो गए!

तेरी यादों ने यूं खब्त(१) कर दिया,
खुशियाँ गर्त और ग़म पहचाने हो गए,
महफ़िल में बैठे भी मुझे लगा ऐसे,
दश्त-ओ-दरिया(२) में मेरे ठिकाने हो गए,
जो कमरे मेरे घर इबादत के लिए थे,
जाने किस तरह से अब मयखाने हो गए,
खूगर(३) तेरी कशिश का मैं पहले ही था,
तेरे ग़म में बस पीने के बहाने हो गए,
ज़माने की रजीलियों(४) की क्या मिसाल दूं,
हर लफ्ज़ जैसे तीर के निशाने हो गए,
इक वक़्त था जो दोस्त भी होते थे साथ में,
खुद के साए भी अब तो बस बेगाने हो गए!

(१) पागल (२) रेत का समंदर (३) आदी (४) मतलबीपन

शनिवार, 26 जून 2010

मेरी पहली पंजाबी रचना!


कृपया तस्वीर पर क्लिक करें!
दोस्तों,

आज मैंने अपनी पहली पंजाबी रचना लिखी है! मेरे एक मित्र हैं हरप्रीत सिंह जो दुबई में रहते हैं उन्होंने मुझ से कहा एक दिन की आप क्यों पंजाबी में नहीं लिखते! तो मैंने सोचा की आज लिख कर देखूं कैसा परिणाम आता है!

आप लोगों में से कुछ पंजाबी शायद न पढ़ पाएं, इसीलिए अपनी रचना हिंदी में भी लिख रहा हूँ! अगर फिर भी किसी को समझना हो तो बे-हिचक मुझे ईमेल भेज दें!

पंजाबी फोंट स्वीकार कर रहा था मेरा ब्लॉगर टेक्स्ट बॉक्स सो पिक्चर लगा रहा हूँ उन दोस्तों के लिए जो पंजाबी पढना जानते हैं!



"पलकां नु विछाया सजणा"


अज कल्लेयाँ बैठे हंजुआं नु पुछेया मैं,
कानू इन्ना लम्मा विछोडा पाया सजणा,
जदों रो रो के टुट बैठी हार के मैं,
तेरी तस्वीर नु घुट छाती लाया सजणा,
अक्खां बंद कर सोचन लग्गी रब बारे,
तेरा चेरा अक्खां अग्गे आया सजणा,
तेरे सजदे गल्लां कर के कुज देर,
बलदी होई अग्ग नु बुझाया सजणा,
तेरे बाजों जी हुन्न लग्गदा नि मेरा,
रावां तक्क तक्क जी भर आया सजणा,
हुन्न देर न कर आ बना ले अप्पना,
तेरे लई पलकां नु मैं विछाया सजणा!

मंगलवार, 22 जून 2010

सावन के झूलों की तरह!

जब तुम दूर गए तो पतझड़ था,
बस तेज़ हवा और अंधड़ था,
अब लौट बसंत फिर आया है,
तुम भी आओ फूलों की तरह,
डालों पे जो हैं सूने पड़े,
तेरी बाहों को छूने खड़े,
आ के बाहों में तुम ले लो,
उन सावन के झूलों की तरह,
इंतज़ार और अब होता नहीं,
रातों में घंटो सोता नहीं,
पल पल जुदाई का अब तो,
चुभने सा लगा शूलों की तरह,
अब देर न कर खो जाऊंगा,
आगोश-ए-क़ज़ा(१) सो जाऊंगा,
आँचल में समो ले तू मुझको,
उड़ ना जाऊं राह की धूलों की तरह!
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(१) मौत की बाहों में
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शुक्रवार, 11 जून 2010

कुछ अधूरे ख्वाब!

गुज़रते हुए वक़्त के साथ साथ,
तन्हाइयां भी मेरी बढ़ने लगी हैं,
चाँद के सीधे दीदार से भी,
पलकें मेरी अब सिकुड़ने लगी हैं,
किताब में दफ्न तेरी दी हुई कली,
जाने किन पन्नो को पढने लगी है,
सुलगती हुई सी वो तासीर के संग,
हर पत्ती भी उसकी अब सड़ने लगी है,
कोशिश तो की लेकिन थक हार बैठा,
मेरी हिम्मत ही अब मुझसे लड़ने लगी है,
कुछ देखे थे ख्वाब जो रह गए अधूरे,
कुछ तीखी सी कोफ्त है बढने लगी है,
या मिला दे उसे या बुला ले तू मुझको,
बस साँसों की माला बिखरने लगी है,
बस साँसों की माला बिखरने लगी है!

रविवार, 9 मई 2010

माँ खुदा का रूप!

कोमल सी पलकें दुनिया में खुली,
सब से पहले मुझे तू दीखी माँ,
बाकी सब लफ्ज़ तो बाद में फूटे,
"माँ" पहली आयत मैंने सीखी माँ,
जब भी कभी रातों में डर से सिमटा,
तूने आँचल में मुझको समाया था माँ,
कागज़ पे आढी टेढ़ी लकीरों को देख,
मुझे अच्छे से लिखना सिखाया था माँ,
जब भी कोई गलती मैंने थी की,
सबके सामने ही तूने डांटा था माँ,
फिर मेरी पहली कामयाबी को भी,
उन्ही सब के साथ तूने बांटा था माँ,
आज तक जो तूने किया मेरे खातिर,
उसका सबाब क्या बताने से होगा,
कुछ और गर तेरे सजदे में कहूं,
तो सूरज को दिया दिखाना सा होगा,
हमेशा तेरा हाथ मेरे सर पे रहे,
तेरे प्यार की कभी छाँव कभी धूप है,
उसको देखने की अब तमन्ना नहीं है,
बस तू ही मेरे लिए खुदा का रूप है!

शुक्रवार, 7 मई 2010

अल्हान बना लूं मैं!

तेरे मीठे मीठे बोलों को होटों पे सजा लूं मैं,
चुन चुन के उन में मोती इक नज़्म बना लूं मैं,
अफरोज(१) तेरी इन आँखों में इस क़दर डूब जाऊं मैं ,
कुछ और नहीं मदहोशी पे अल्हान(२) बना लूं मैं,
हिचकोले खाती जुल्फों से कुछ तो बिशारत(३) लूं,
हर लफ्ज़ जो छन छन के निकले इक जाल बना लूं मैं,
इतनी तो फजीलत(४) खुदा मेरी आँखों को बख्श दे,
तू अपनी परछाई देखे आईना बना लूं मैं,
गर रुखसार से तू रोशन कर दे अँधेरे पल मेरे,
हर कोने में वो जलती हुई शम्मा को बुझा लूं मैं!
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(१) चमकती हुई (२) मधुर संगीत (३) प्रेरणा (४) महारत
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गुरुवार, 6 मई 2010

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये!

प्रिय दोस्तों,
आज किसी ने मुझे एक हास्य कविता भेजी तो मैंने सोचा क्यों न इसे अपने ब्लॉगर मित्रो से सांझा की जाए!
मुझे नहीं मालूम की ये कविता किसने लिखी है सो अगर किसी को पता हो तो कृपा कर के मुझे बताएं जिस से की मैं उनका नाम प्रकाशित कर सकू!
अभी नहीं जानता सो उनकी अनुमति की बिना ही अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ!
**अति महत्तवपूर्ण**
ये कविता किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं कही गयी है, किसी भी व्यक्ति विशेष को भी टार्गेट नहीं किया गया है!
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तो दोस्तों पेश-ए-खिदमत है.......

"मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये"

तुम एम् ए फर्स्ट डिविजन हो, मैं हुआ मेट्रिक फेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम फौजी अफसर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ,
तुम रबड़ी खीर मलाई हो, मैं तो सत्तू सपरेटा हूँ,
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड़ के नीचे लेटा हूँ,
तुम नयी मारुती लगती हो, मैं स्कूटर लम्ब्रेटा हूँ,
इस कदर अगर हम चुप चुप कर आपस में प्रेम बढ़ाएंगे,
तो इक रोज़ तेरे पापा ज़रूर अमरीश पुरी बन जायेंगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम अरब देश की घोड़ी हो, मैं हूँ गधे की नाल प्रिये,
तुम दीवाली का बोनस हो, मैं भूखो की हड़ताल प्रिये,
तुम हीरे जड़ी तश्तरी हो, मैं अलमूनियम का थाल प्रिये,
तुम चिकन सूप बिरयानी हो, मैं कंकड़ वाली दाल प्रिये,
तुम हिरन चौकड़ी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये,
तुम चन्दन वन की लकड़ी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये,
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मारो मुझे गुलेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं महिषासुर सा हूँ कुरूप, तुम कोमल कंचन काया हो,
मैं तन मन से कांशी राम, तुम महा चंचल माया हो,
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ,
तुम राज घाट का शांति मार्च, मैं हिन्दू मुस्लिम दंगा हूँ,
तुम हो पूनम का ताज महल, मैं काली गुफा अजन्ता की,
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवंता की,
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम ठेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ,
तुम ए. के. सैंतालिस जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ,
तुम चतुर राबड़ी सी जैसी, मैं भोला भाला लालू हूँ,
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिड़ियाघर का भालू हूँ,
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी.पी. सिंह सा खाली हूँ,
तुम हंसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिस मैन की गाली हूँ,
कल जेल अगर हो जाए तो दिलवा देना तुम बेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मै ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पांच सितारा होटल हो,
मै महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड लेबल की बोतल हो,
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कृषि दर्शन की झाडी हूँ,
तुम विश्व सुंदरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाड़ी हूँ,
तुम सोने का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन का हूँ चोंगा,
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंगा,
दस मंजिल से गिर जाऊंगा, मत आगे मुझे धकेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम सत्ता की महारानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ,
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं कुंवारा अटल बिहारी हूँ,
तुम तेंदुलकर का शतक प्रिये, मैं फोल्लो ओन की पारी हूँ,
तुम गेट्ज मटीज कोरोल्ला हो, मैं लेलैंड की लारी हूँ,
मुझको रेफरी ही रहने दो, मत खेलो मुझ से खेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं सोच रहा की रहे हैं कब से, श्रोता मुझ को झेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये!

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

यादों के धागे!

जब मौत का पैगाम आये,
फ़रिश्ते मोड़े नहीं जाते,
दूर रह के हर रिश्ता तोड़ दो,
एहसासों के रिश्ते तोड़े नहीं जाते,
दुआ है तुझे भूलने से पहले,
सासें टूट जाएँ मेरी,
इक बार जो टूटे दिल के,
टुकड़े जोड़े नहीं जाते,
हर ज़ख्म सहने की,
हिम्मत जोड़ लेते हैं,
कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं,
खुल्ले छोड़े नहीं जाते,
गर जुदा भी हुए कभी,
बस बदन ही अलग होंगे,
इतने पक्के यादों के धागे,
ज़माना लाख कोशिश कर ले,
कभी तोड़े नहीं जाते...
कभी तोड़े नहीं जाते!

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

नज़र तू आया!

आज तेरी याद ने कुछ यूं सताया,
लाख रोका दिल को पर भरता आया,
तन्हाई दूर करने घूमने निकला,
लहरों के साहिल पे खुद को चलता पाया,
गहवारा(१) लहरों से चाँद निकलते देखा,
इक पल को तेरा चेहरा नज़र आया,
आँखें मूँद लहरों से गुजारिश जो की,
हर छींट संग मोतियों का पुलिंदा आया,
चुन चुन के उन में सब से पारसा(२) मोती,
अपने हाथों से तेरे लिए इक हार बनाया,
सोचा नीले समंदर में डूब के देखूं,
अगले ही पल तेरी आँखों का ख़याल आया,
दिल ने फिर बादलों में खोने को जो कहा,
तेरी जुल्फों से खेलने का मन बना आया,
तेरे आने की उम्मीद में पलकें जो मूंदी,
इलाही के रूप में मुझको नज़र तू आया!

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(१) हिचकोले खाती (२) पवित्र
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गुरुवार, 25 मार्च 2010

ख़्वाबों में लाने के लिए!

इक दरख्वास्त तुझ से की है,
नज़र-ए-जाम पिलाने के लिए,
कतरा-ए-आब(१) ही काफी है सादिक,
मुझे होश में लाने के लिए,
अबरू(२) ये तीखी कम नहीं,
हूरे-सल्तनत हिलाने के लिए,
इन्ही से घायल कर मुझको,
वक़्त नहीं तलवार चलाने के लिए,
देर हुई तो कहीं दम न तोड़ दूं,
हकीम मिलता नहीं ज़ख्म सिलाने के लिए,
जो कहीं नागहाँ(३) दूर चला भी जाऊं,
साँसों से छू लेना मुझे जिलाने के लिए,
हर कीमत देने काबिल हूँ मैं,
तुझे न कभी भुलाने के लिए,
चल अब आँखें मूँद लेता हूँ,
सोना तो पड़ेगा तुझे ख़्वाबों में लाने के लिए!
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(1) पानी का एक कतरा (२) भोहें (३) दुर्घटनावश **********************************************

बुधवार, 24 मार्च 2010

तेरी यादें!


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धन्यवाद!

बुधवार, 17 मार्च 2010

वही कहते हैं!

अब कोई और काम नहीं रह गया,
हर पल तेरे ख्यालों में रहते हैं,
खमदार(१) गेसुओं में खोये हुए,
दिल की उलझने सुलझाते रहते हैं,
ना जाने की इबरत(२) गजरे ने दी थी,
बोले जुल्फों में बादल घने रहते हैं,
मैंने भी फिर चुपके से पूछा ये उसको,
क्या घटायें और पानी संग नहीं रहते हैं,
सन्न सा हुआ मेरे इस नजीर(३) पे,
बोला ये जुमले कहाँ से बहते है,
मोहब्बत ने शायर बना डाला मुझको,
जो लरजता है दिल में वही कहते हैं!

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(१) घुंघराले (२) चेतावनी (३) उदाहरण
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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

अधूरी ख्वाहिशें!


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धन्यवाद!

सोमवार, 8 मार्च 2010

नमन करता हूँ-महिला दिवस पर कुछ ख़ास!


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सधन्यवाद,

सुरेन्द्र!

गुरुवार, 4 मार्च 2010

दिल-ए-मासूम!


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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली पे कुछ ख़ास!



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धन्यवाद!

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

न तू मुझको भूले!


एहतराम(१) में पलकें बिछाए खड़े हैं,

तू आये और इन सर्द आँखों को छू ले,

एजाज़(२) की आरज़ू में शायद इन सूखे,

दरख्तों पे पड़ जाएँ सावन के झूले,

तहम्मुल(३) की हदें मैं तोड़ न बैठूं,

इक पल के लिए भी जो तू दूर हो ले,

बिशारत-ए-आमद(४) जो आ जाए तेरी,

इल्तेजा ये करूँ हर सांस मेरी तू ले,

चल इस तरह तेरी आगोश में रह लूं,

न मैं तुझको भूलूँ न तू मुझको भूले,

खारदार(५) जो वक़्त कभी तुझपे आये,

इलाही ये दिल ही उसे रू-ब-रू ले !

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(१) सम्मान (२) चमत्कार (३) धैर्य (४) आने की खुशखबरी (५) मुसीबतों भरा

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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

खताएं भुला दे!

तन्हाई में ग़ुम मैं तेरा आदी हो गया हूँ,
कम से कम अब मेरी खताएं भुला दे,
ख़याल-ए-वस्ल(१) की हाफिजा(२) कुछ और जी लूं,
नींद और हो गहरी साया-ए-ज़ुल्फ़ फैला दे,
कुछ ऐसा हो के मुहब्बत कामिल(३) हो मेरी,
चंद बचे पलों में दो पल अपने मिला दे,
राज़-ओ-नियाज़(४) तुझसे करूँ कुछ वक़्त जो मिले,
आगोश में ले और ख़्वाबों में झुला दे,
इक छुअन से तू मेरी यास(५) ज़िन्दगी बदल दे,
कगार-ए-मौत पे बुझती हुई शम्मा जला दे!
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(१) मिलने के ख्याल (२) मीठी यादें (३) पूरी (४) वो बातें जो बस आशिकों के बीच होती हैं
(५) जिसमें कोई उम्मीद न हो
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आपका,
सुरेन्द्र!

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

रकीब हो जाते हैं!


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धन्यवाद!

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

"will you be my valentine"


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आप सभी को प्रेम दिवस की शुभकामनाएं!

आपका,

सुरेन्द्र "मुल्हिद"

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

"कशिश"

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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

मेरी पहली अंग्रेजी रचना!




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प्रिय मित्रो,


आज मैं आपके लिए अपनी पहली अंग्रेजी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ!


मुझे अंग्रेजी में लिखने का कीड़ा अपनी एक मित्र "डिम्पल" जी की अद्भुत रचनाएँ पढ़े के बाद काटा!


वैसे तो मैं डिम्पल जी की बराबरी नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि उनके जैसा लिखने के लिए मुझे नया जन्म लेना पड़ेगा!


डिम्पल जी, आशा करता हूँ की आप मेरी इस कोशिश को पसंद करेंगी!


धन्यवाद!

बुधवार, 27 जनवरी 2010

साँसों की डोरी-(मेरी पचासवीं रचना)


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प्रिय दोस्तों,


आज मैं अपनी पचासवीं रचना के साथ आप का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ, आपके सहयोग और प्यार ने मुझे और लिखने की प्रेरणा दी!


लगभग आठ महीने पहले मैंने ब्लॉग जगत में क़दम रखा और आप लोगों का इतना स्नेह और प्रोत्साहन मिला की वापस कभी जा ही नहीं पाया!


आशा करता हूँ मैं आप सभी की उम्मीदों पे आगे भी खरा उतरूंगा!


एक बार फिर आप सभी दोस्तों का हार्दिक धन्यवाद!

रविवार, 24 जनवरी 2010

नज़्म-नुमा मौत!


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धन्यवाद आपने समय के लिए!

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

तेरे सजदे में!

कृपया तस्वीर पर क्लिक करें, आपको पढने में आसानी होगी!
धन्यवाद !

रविवार, 10 जनवरी 2010

धड़कन की जुबाँ होती है!

कभी अश्कों तो कभी ख़ामोशी में बयाँ होती है,
हर पल एहसासों की तड़प दिल में जवाँ होती है,
तेरे सजदे में रह के ए'तेराफ(१) करना है मुझे,
जो कशिश तुझ में है इबादत में कहाँ होती है,
बेचैनी की लकीरें जो जबीन(२) पे उभरती हैं,
खींच ले जाती हैं मुझे मयकशी जहां होती है,
उस तरफ गुरूब्ता(३) पाता हूँ मैं खुद को,
दरिया की खामोशी सब से ज्यादा जहां होती है,
तू भी एहतेसाब(४) करने लगी है मेरी चाहत को,
माने या न माने तू हर धड़कन की जुबाँ होती है!
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(१) इज़हार (कन्फेस) (२) माथा (३) डूबता (४) परीक्षण
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मंगलवार, 5 जनवरी 2010

काश बस अरमान लिए न मरूं मैं!

कितने अरसे बाद चाँद हुआ नुमाया,

क्यों न तेरी आज तारीफ करूँ मैं,

तुझे देख गुलों का पुलिंदा शरमाया,

क्यों न तेरी आज तारीफ करूँ मैं,

तेरे हुस्न का चर्चा कुछ यूँ गहराया,

महफ़िल में भी जाते हुए डरूं मैं,

अपने अंदाज़ में हर कोई तुझे करे बयान,

कश्म-कश है कैसे बयान करूँ मैं,

इक तरफ ताज महल फिर सूरत है तेरी,

तस्वीर में कैसे रवां करूँ मैं,

दिल में ही रखूँ कह भी न पाऊँ,

काश बस अरमान लिए न मरूं मैं!