हर रोज़ सोच के जीता हूँ
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!
अभी कुछ दिन ही हुए तुम दूर गए,
लगता है अरसो से तुम पास नहीं हो,
गाहे-बगाहे सासें भी रुक रुक के आती हैं,
जैसे इन्हें भी तेरी साँसों बिना जीने की आस नहीं हो,
तुझ पे लिखी हुई बंदिशों का पुलिंदा उठाया,
सोचा पढ़ लूं तो दूरियों का एहसास नहीं हो,
ज़ालिम हर लफ्ज़ की तासीर ने यूं घायल किया,
जैसे उन्हें मेरी तन्हाईयों का एहसास नहीं हो,
कुछ और पन्ने पलटे तो इक सूखा गुलाब दिखा,
फिर याद आया अरे ये तो वही पहला गुलाब है,
जो डर डर के तुम्हें देने को तुम्हारी सहेली को दिया था,
दूर झरोखे से तुम्हें यूं देख रहा था जैसे,
नज़रें उठाने की भी हिम्मत पास नहीं हो,
तुमने फूल लिया और मैं दौड़ कर ऊपर के कमरे में गया,
छोटे से मंदिर में घी का दिया जलाते हुए,
रब को हाथ बांधे शुक्रिया करते हुए कहा,
भले ही मिलाना हज़ारों से पर ध्यान ये रखना,
के कोई तुम जैसा खासम-ख़ास नहीं हो,
खुशकिस्मती है आप ज़िन्दगी का हिस्सा हैं,
जो कभी भी ख़त्म न हो ऐसा एक किस्सा हैं,
इंतज़ार में हूँ तुम जल्द आओ और अपने रुखसार से,
कुछ यूं रौशन करो की गर्त में भी अँधेरे का एहसास नहीं हो!
वक़्त भी न जाने कैसे बदल जाता है....जब हम छोटे थे और कोई हमारी बात नहीं समझता था, तब सिर्फ एक ही हस्ती थी जो हमारे टूटे फूटे अल्फाजों को भी समझ जाती थी, और आज हम उसी हस्ती से कहते हैं, "आप नहीं जानती", "आप नहीं समझ पाएंगी", "आपकी बातें मुझे समझ नहीं आती", "लो अब तो आप खुश हो न", इस आदरणीय शख्सियत की इज्ज़त करें, इस से पहले की ये साथ ख़त्म हो!
सख्त रास्तों में भी आसान सफ़र लगता है,
ये मुझे मेरी माँ की दुआओं का असर लगता है,
एक मुद्दत से मेरी माँ सोयी नहीं है,
जब से मैंने एक बार कहा था, माँ-मुझे डर लगता है!
प्रिय दोस्तों,
आप सभी को नव वर्ष २०११ की शुभ-कामनाएं!
काफी दिनों के बाद मैं फिर से अपने वियोग-रस के साथ हाज़िर हूँ! आशा करता हूँ आपको मेरी ये रचना पसंद आएगी! शीर्षक है, "कभी न था"
आज जा के जाना उस मुहब्बत की मजाज़त(१) को,
कि मैं तेरा हमसफ़र कभी न था,
भीड़ में हूँ पर लगता है ऐसा,
आज से पहले ऐसा सहर(२) कभी न था,
ठंडी हवाएं जिस से छन के सुलाती थीं मुझे,
उस से खूबसूरत एह्साह का शजर(३) कभी न था,
और अब आने से उनके आँखों में खूं उतरता है,
तेरे ख़्वाबों का भी ऐसा कहर कभी न था,
हर इमारत मुझे गुफ्तार(४) नज़र आती है,
तेरे दिल में तो शायद मेरा घर कभी न था,
वक़्त ने उस क़ज़ा(५) के दर ला छोड़ा मुझे,
जिस कब्रस्तान में हसरतों का शहर कभी न था!
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(१)मोह-जाल (२) उजाड़ (३) पेड़ (४) ये कहती हुई (५) मौत
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काफी दिनों से व्यस्त था
बोरियत भी थी भगानी
समझ आया नहीं किस पे लिखूं,
न किस्सा कोई न कहानी
शुकर है बॉलीवुड वालों का
टॉपिक दे दिया लिखने को
प्रिय मित्रों,
अपनी इस हास्य कविता की पहली पंक्ति मेरी नहीं है सो बहुत ही आदर के साथ मैं आप सभी से आज्ञा ले कर इसे प्रकाशित करना चाहूँगा! तो पेश-ए-खिदमत है, मेरी एक नयी हास्य कविता, आशा करता हूँ आप सभी को पसंद आएगी!
खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है,
खुशनसीब हैं वो कुड़ियां नियामत पा ही जाती हैं,
बदनसीब हैं वो लड़के जो राह चलते छेड़ें उन्हें,
गाहे बगाहे किसी न किसी की शामत आ ही जाती है,
बच जाते हैं जो खाली चप्पलें खा कर,
तन्हाई में चैन की सांसें लेते होंगे,
गलती से भी जो हत्थे चढ़ जाएँ इनके,
पीछा करते हुए ज़लालत आ ही जाती है,
ऊपर से गर तीन चार तगड़े भाई हो उनके,
फिर तो भैया क्या कहने धुनाई के,
अम्बुलेंस की ज़रूरत भी नहीं पड़ती है,
जनता अस्पताल पहुंचा ही जाती है,
या तो हुस्न-ओ-अदा हमें भी दे ए खुदा,
या छीन ले इन लड़कियों से भी,
चाकू उठाने की हिम्मत भले न हो,
क़त्ल करने की ताक़त आ ही जाती है!
"इक अजनबी से दो बातें"
उस गुल-अन्दाम(१) अजनबी से इक बात,
एक खूबसूरत सा एहसास बन गयी,
तन्हाई के ज़ख्मो की मुदावा(२) माफिक,
मामूली सी जो लगती थी ख़ास बन गयी,
अधूरी सी थी जो दिल में इक ख्वाहिश,
परदाख्त(३) हुई और वो मेरे पास बन गयी,
हर पल मेरे लिए तेरी ये तवज्जो(४)
टूटती साँसों को जोडती सांस बन गयी,
इंतज़ार है कब मुलाक़ात होगी उस से,
ये दस्त-निगारी(५) मेरे जीने की आस बन गयी,
तुझे देखने की कशिश उस गनजीना(६) सी है,
जो मेरे सफ़र की सब से बड़ी तलाश बन गयी!
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(१) खूबसूरत (२) औषधि (३) पूर्ण (४) एहमियत (५) चाहत (६) खजाना
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दोस्तों,
मेरी पुरानी रचना "बेगाने हो गए" पढने के बाद मेरी एक मित्र ने कहा की आप इस बार कुछ ऐसा लिखिए जिस से अपनेपन का एहसास हो माने जब दो प्रेम करने वालों का मिलन हो रहा हो और प्रेमी अपने दिल की बात अपनी प्रेमिका को ज़ाहिर करे!
कोशिश की है मैंने की शायद मैं अपनी इस रचना के साथ इन्साफ कर पाऊँ, बाकी आप सभी की प्रतिक्रिया बताएगी!
तो पेश-ए-खिदमत है:
"तेरी पायल की छम छम"
कितने अरसे के बाद सुनी,
तेरी पायल की छम छम,
हर वक़्त इल्तेजा करते थे,
इंतज़ार हुआ है ख़तम,
तेरे चेहरे को हाथों में ले,
ठगे से रह गए हम,
इस नूरानी रुखसार के आगे,
चाँद भी पड़ गया नम,
दो नैना ये दरिया की तरह,
कहीं डूब न जाएँ हम,
दो लब ये गुलाब की पंखुड़ी से,
इस दिल पे ढाएं सितम,
एहसास तेरा जादुई सा,
पत्थर को कर दे नरम,
तू चलती फिरती नज़्म मेरी,
किस काम की है ये कलम,
हर सू तेरे सजदे में रहूँ,
चाहे सासें बची हों कम,
फ़रियाद खुदा से करता हूँ,
कभी जुदा न हों बस हम!
एहतराम(१) में पलकें बिछाए खड़े हैं,
तू आये और इन सर्द आँखों को छू ले,
एजाज़(२) की आरज़ू में शायद इन सूखे,
दरख्तों पे पड़ जाएँ सावन के झूले,
तहम्मुल(३) की हदें मैं तोड़ न बैठूं,
इक पल के लिए भी जो तू दूर हो ले,
बिशारत-ए-आमद(४) जो आ जाए तेरी,
इल्तेजा ये करूँ हर सांस मेरी तू ले,
चल इस तरह तेरी आगोश में रह लूं,
न मैं तुझको भूलूँ न तू मुझको भूले,
खारदार(५) जो वक़्त कभी तुझपे आये,
इलाही ये दिल ही उसे रू-ब-रू ले !
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(१) सम्मान (२) चमत्कार (३) धैर्य (४) आने की खुशखबरी (५) मुसीबतों भरा
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