कभी दूरियों के मौसम एक से नहीं रहे हैं!
गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015
दूरियों के मौसम...
कभी दूरियों के मौसम एक से नहीं रहे हैं!
मंगलवार, 16 सितंबर 2014
"इक क़सक जो अधूरी रह गयी" - मेरी १००वी रचना
तुझ से दूर हुए फिर भी तुझसे जुदा ना हो पाये
हर वक़्त तुझे पलकें मूँदे किसी के सजदे में ग़ुम देखा
आखिर में मेरे गुमाँ(२) निकले पर तेरे ख़ुदा ना हो पाये
हज़ारों खतायें की होंगी तेरे जानिब(३) रह कर भी
बेइन्तेहाँ तग़ाफ़ुल(४) किये होंगे तुझे अपना कह के भी
ना जाने कितनी गिरहें(५) उलझ गयीं इन बीते लम्हों में
वक़्त गुज़ारते हैं इन्हे खोलने में पर बेवफा ना हो पाये
जब बिछड़ रहे थे तुझसे आँखों में नमी लिए
मुसल्सल(६) उम्मीद थी काश तुझे आग़ोश में ले पाएं
तुझ पे लिखे कुछ लफ्ज़ जो होटों पे लरज़ते रहे
अफ़सोस जुदा होते हुए भी वो ग़ज़ल ना कह पाये
खुदा मुझे या तो तुझे बख़्शे या करा दे मौत नसीब
बस एक बार दीदार हो और हम ये कह पाएं
*********************************************************************
मंगलवार, 7 जनवरी 2014
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!
हर रोज़ सोच के जीता हूँ
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!
सोमवार, 5 अगस्त 2013
निशानियाँ
खूबसूरत रात की दास्ताँ कहती है
तेरे जाने के बाद भी पहरों तक
मेरे लबों पे इक जुम्बिश (२) रहती है
गेसुओं में तेरी उँगलियों की हरारत
हर ज़ुल्फ़ उनछुई सिहरन सहती है
लरजती पलकों पे तेरे लबों की आहट
किसी शरारत की कहानी कहती है
तेरे आगोश में आकर टूट जाने की
उस वक़्त बस यही कोशिश रहती है
कि डूब जाऊं तुझ में इस तरह से मैं
जैसे रेत दरिया के चश्मों संग बहती है
न जाने फिर कब आयेगा तू और
खूबसूरत सा वो मिलन होगा
कुछ तो छोड़ जाने की भी
दुनिया की रवायत (३) कहती है
चल कुछ और नहीं तो बस तू फिर
लबों पे गवाही छोड़ जाना
सुना है कि कुछ ख़ास गवाहियां
बन के निशानियाँ रहती हैं
शब्दार्थ : (१) साज-सज्जा (२) एह्साह (३) रस्म
मंगलवार, 2 जुलाई 2013
कुछ अनछुए पहलू!
सोचा इक खामोश सा कमरा ढूंढ लूं मकान में
खुशकिस्मती से इक कोठरी मिली जिसे खोला तो देखा
उसमें मेरे बचपन का हर लम्हा बिखरा हुआ है
ये लम्हे अब मेरी तन्हाइयों के हमसफ़र हैं
जिन्हें ना जाने कब से किस किस हवा ने छुआ है
जब समेटने लगा मेरी लिखी कुछ नज्मों की परतें
शब्दार्थ : (१) एक दूसरे को समझना (२) की तरह (३) परंपरा
गुरुवार, 6 जून 2013
न जाने क्यों!
मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012
ज़िंदगी से इक मुलाक़ात !
सोमवार, 7 मई 2012
जय हो निर्मल बाबा!
सोमवार, 20 फ़रवरी 2012
गाहे-बगाहे हैं!
फिर भी लगती अजनबी सी राहें हैं
लाख नज़ारे देखे होंगे राह-ए-सफ़र में
ना जाने क्यों फिर भी सूनी सी निगाहें हैं
यूं तो तेरी यादों को साथ ले के चला था
अब गहराइयों में दिल की सिसकती सी आहें हैं
तुझे आगोश में लेने की बस तम्मना रह गयी
आज भी तेरे इंतज़ार में खुली मेरी बाहें हैं
ना जाने कब फरिश्तों की नगरी से बुलावा हो
सुना था वहाँ रहती मोहब्बत-ए-पाक अरवाहें हैं
इक तुझसे प्यार किया तो पहचान थी अपनी
आज दुनिया की नज़रों में हम गाहे-बगाहे हैं!
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011
"मफर सी रिहाइश"
इक पल उनके बिना बिताया नहीं जाता
उनकी यादें ही अब साँसों की कासिम(१) हैं
वर्ना रिश्ता-ए-ज़िंदगी निभाया नहीं जाता
उनकी गलियों में मफर(२) सी रिहाइश में हैं
हू-ब-हू उनसा कोई साया नहीं आता
रात होते चाँद में नज़र गड़ सी जाती है
जाने क्यों उनका रुखसार नुमाया(३) नहीं जाता
हार कर क़दम मयखाने मोड़ लेते हैं
वहाँ भी गम-ओ-मय मिलाया नहीं जाता
हर रोज़ उनके लिखे कागज़ के कतरों में
चाह कर भी खुद को गुमाया नहीं जाता
हर लफ्ज़ उनका जीने की उम्मीद सा है
हज़ारों बार पढ़ लूं कुछ मेरा जाया नहीं जाता !!
(१) बांटने वाली (२) खानाबदोश (३) प्रतीत होना
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011
मुश्क-ए-जज़्बात
जैसे सावन की गर्त काली रात हुई हो
नूर-ए-चश्म झांकता सा गेसुओं के चिलमन से
जैसे सुर्ख बादलों से उसकी बात हुई हो
इक पल को ही जो उनके दीदार हो जाएँ
लगे ज़िन्दगी की मुकम्मल सौगात हुई हो
जो झटक दें जुल्फों से पानी के कुछ कतरे
यूं लगे रिमझिम मुहब्बत की बरसात हुई हो
नज़र उठा के देख लें जो वो झरोखों से
क़दमों में जैसे झुकी झुकी कायनात हुई हो
उनके रुखसार की रौशनी से ही उजाला है
जो ढक ले कभी तो दिन में मानो रात हुई हो
खुदा ने भी शायद उन्हें शिद्दत से तराशा है
मानो सबसे काबिल शिल्पी से उसकी बात हुई हो
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
कुछ ग़ुम अनमोल लम्हे......
रविवार, 17 जुलाई 2011
एहसास..........
***********************************************************************
बुधवार, 18 मई 2011
किसी ख़ास के लिए....
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
अनमोल कर दिया!
मंगलवार, 8 मार्च 2011
औरत हूँ मैं....
कभी दो बहनों के होते भी मिला प्यार,
कभी अकेली थी भाइयों में तो भी तिरस्कार,
कभी मिल गया सब कुछ बिन मांगे ही,
कभी खुद पे भी न जता पायी अधिकार,
औरत हूँ मैं....
कभी पढ़ लिख के ऊंची मंजिल पायी,
कभी चूल्हों चौकों से न निकल पायी,
जहां कष्ट हज़ारों झेले थे कभी,
ज़रा सुख मिला तो भी न निगल पायी,
औरत हूँ मैं....
कभी माँ बाप को दोस्त समझ सब कह गयी,
कभी डरती सहमती सी चुप रह गयी,
कभी हसरतें उम्मीदें पूरी हुईं,
कभी बिन बोले ही सब कुछ सह गयी,
औरत हूँ मैं....
कभी कल्पना बन चाँद पे जा बैठी,
कभी बर्तन धोते तश्तरी को चाँद बना बैठी,
कभी सपनो ने अरमानो के पंख लगाए,
कभी दबे हुए अरमान भी भुला बैठी,
औरत हूँ मैं....
बेटी, बहन और माँ भी मैं हूँ,
तपती धूप में ठंडी छाँ भी मैं हूँ,
अत्याचारों की आग में जलती जो है,
जहाँ रहते हो वो भारत माँ भी मैं हूँ,
औरत हूँ मैं....
हर रूप में ममता की मूरत हूँ मैं,
जग जननी सृष्टि की ज़रुरत हूँ मैं,
दो क़दम आओ तो चार क़दम मैं आऊँ,
रब के बाद रब की ही सूरत हूँ मैं,
औरत हूँ मैं....औरत हूँ मैं....औरत हूँ मैं....!
शुक्रवार, 21 जनवरी 2011
अँधेरे का एहसास न हो!
अभी कुछ दिन ही हुए तुम दूर गए,
लगता है अरसो से तुम पास नहीं हो,
गाहे-बगाहे सासें भी रुक रुक के आती हैं,
जैसे इन्हें भी तेरी साँसों बिना जीने की आस नहीं हो,
तुझ पे लिखी हुई बंदिशों का पुलिंदा उठाया,
सोचा पढ़ लूं तो दूरियों का एहसास नहीं हो,
ज़ालिम हर लफ्ज़ की तासीर ने यूं घायल किया,
जैसे उन्हें मेरी तन्हाईयों का एहसास नहीं हो,
कुछ और पन्ने पलटे तो इक सूखा गुलाब दिखा,
फिर याद आया अरे ये तो वही पहला गुलाब है,
जो डर डर के तुम्हें देने को तुम्हारी सहेली को दिया था,
दूर झरोखे से तुम्हें यूं देख रहा था जैसे,
नज़रें उठाने की भी हिम्मत पास नहीं हो,
तुमने फूल लिया और मैं दौड़ कर ऊपर के कमरे में गया,
छोटे से मंदिर में घी का दिया जलाते हुए,
रब को हाथ बांधे शुक्रिया करते हुए कहा,
भले ही मिलाना हज़ारों से पर ध्यान ये रखना,
के कोई तुम जैसा खासम-ख़ास नहीं हो,
खुशकिस्मती है आप ज़िन्दगी का हिस्सा हैं,
जो कभी भी ख़त्म न हो ऐसा एक किस्सा हैं,
इंतज़ार में हूँ तुम जल्द आओ और अपने रुखसार से,
कुछ यूं रौशन करो की गर्त में भी अँधेरे का एहसास नहीं हो!
बुधवार, 12 जनवरी 2011
केश सिक्खां लई सब तों वड्डी दात!
गुरु गोबिंद सिंह जी जब औरंगजेब के खिलाफ लड़ाई कर रहे थे तो एक मुस्लिम जिसका नाम बुद्धू शाह था औरंगजेब का साथ छोड़ के गुरु साहिब के साथ मिल गया क्योंकि उसके मुताबिक़ गुरूजी सच की लड़ाई लड़ रहे थे, एक एक कर के दोनों ओर से लोग शहीद हो रहे थे और इस भाई बुद्धू शाह ने अपने दोनों जवान बेटों को भी लड़ाई के लिए गुरु जी के सुपुर्द कर दिया! लड़ाई में बुद्धू शाह के दोनों बेटे भी शहीद हो गए, जब ये बात गुरु जी को पता चली तो उनका दिल भर आया और उन्होंने बुद्धू शाह के पास जा के कहा, "बुद्धू शाह, आज तेरे दोनों बेटों ने सच के लिए कुर्बानी दी है, मांग आज तो तुझे माँगना है", उस वक़्त गुरु गोबिंद सिंह जी अपने केशों में कंघा कर रहे थे, तो बुद्धू शाह ने कहा की आपको अगर इतना ही तरस आया है मुझ गरीब पे तो आप मुझे अपना कंघा और उस में लगे हुए केश दान कर दो, इतना सुनते ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने, कंघे समेत केश, बुद्धू शाह की झोली में डाल दिए!
जब बुद्धू शाह घर आया तो उसकी बेगम नसरीन ने पूछा की मेरे बेटे कहाँ हैं, इस पर बुद्धू शाह ने जो जवाब दिया वो उन सभी सिक्खों के लिए एक सबक है जो अपने केश कटाते हैं और अपने आप को गुरु का सिख कहलवाते हैं!
बुद्धू शाह ने कहा, "नसरीन, मैं अपनी ज़िन्दगी के सब से बड़ी कमाई, सब से बड़ी कीमती चीज़ अपने बेटे, गुरु गोबिंद सिंह को सौंप आया हूँ, और गुरु गोबिंद सिंह की सब से कीमती चीज़, उनके केश, अपने साथ ले आया हूँ"
इतना प्रेम करते थे गुरु गोबिंद सिंह जी अपनी सिक्खी से, और आज न जाने क्या हो गया है, फैशन के चक्करों में पड़ कर सिख अपने केशो की बे-अदबी करने से भी नहीं चूकते! गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्खी के लिए अपने चारों बेटे कुर्बान कर दिए और आज हम उनकी दी हुई सिक्खी को ही नहीं संभाल पा रहे हैं!
वाहेगुरु हम सब पापियों को सद-बुद्धि दें!
वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह!
सोमवार, 3 जनवरी 2011
माँ तुझे सलाम!
वक़्त भी न जाने कैसे बदल जाता है....जब हम छोटे थे और कोई हमारी बात नहीं समझता था, तब सिर्फ एक ही हस्ती थी जो हमारे टूटे फूटे अल्फाजों को भी समझ जाती थी, और आज हम उसी हस्ती से कहते हैं, "आप नहीं जानती", "आप नहीं समझ पाएंगी", "आपकी बातें मुझे समझ नहीं आती", "लो अब तो आप खुश हो न", इस आदरणीय शख्सियत की इज्ज़त करें, इस से पहले की ये साथ ख़त्म हो!
सख्त रास्तों में भी आसान सफ़र लगता है,
ये मुझे मेरी माँ की दुआओं का असर लगता है,
एक मुद्दत से मेरी माँ सोयी नहीं है,
जब से मैंने एक बार कहा था, माँ-मुझे डर लगता है!
सोमवार, 27 दिसंबर 2010
कभी न था!
प्रिय दोस्तों,
आप सभी को नव वर्ष २०११ की शुभ-कामनाएं!
काफी दिनों के बाद मैं फिर से अपने वियोग-रस के साथ हाज़िर हूँ! आशा करता हूँ आपको मेरी ये रचना पसंद आएगी! शीर्षक है, "कभी न था"
आज जा के जाना उस मुहब्बत की मजाज़त(१) को,
कि मैं तेरा हमसफ़र कभी न था,
भीड़ में हूँ पर लगता है ऐसा,
आज से पहले ऐसा सहर(२) कभी न था,
ठंडी हवाएं जिस से छन के सुलाती थीं मुझे,
उस से खूबसूरत एह्साह का शजर(३) कभी न था,
और अब आने से उनके आँखों में खूं उतरता है,
तेरे ख़्वाबों का भी ऐसा कहर कभी न था,
हर इमारत मुझे गुफ्तार(४) नज़र आती है,
तेरे दिल में तो शायद मेरा घर कभी न था,
वक़्त ने उस क़ज़ा(५) के दर ला छोड़ा मुझे,
जिस कब्रस्तान में हसरतों का शहर कभी न था!
******
(१)मोह-जाल (२) उजाड़ (३) पेड़ (४) ये कहती हुई (५) मौत
******
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
शीला की जवानी!

काफी दिनों से व्यस्त था
बोरियत भी थी भगानी
समझ आया नहीं किस पे लिखूं,
न किस्सा कोई न कहानी
शुकर है बॉलीवुड वालों का
टॉपिक दे दिया लिखने को
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
नजाकत आ ही जाती है!
प्रिय मित्रों,
अपनी इस हास्य कविता की पहली पंक्ति मेरी नहीं है सो बहुत ही आदर के साथ मैं आप सभी से आज्ञा ले कर इसे प्रकाशित करना चाहूँगा! तो पेश-ए-खिदमत है, मेरी एक नयी हास्य कविता, आशा करता हूँ आप सभी को पसंद आएगी!
खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है,
खुशनसीब हैं वो कुड़ियां नियामत पा ही जाती हैं,
बदनसीब हैं वो लड़के जो राह चलते छेड़ें उन्हें,
गाहे बगाहे किसी न किसी की शामत आ ही जाती है,
बच जाते हैं जो खाली चप्पलें खा कर,
तन्हाई में चैन की सांसें लेते होंगे,
गलती से भी जो हत्थे चढ़ जाएँ इनके,
पीछा करते हुए ज़लालत आ ही जाती है,
ऊपर से गर तीन चार तगड़े भाई हो उनके,
फिर तो भैया क्या कहने धुनाई के,
अम्बुलेंस की ज़रूरत भी नहीं पड़ती है,
जनता अस्पताल पहुंचा ही जाती है,
या तो हुस्न-ओ-अदा हमें भी दे ए खुदा,
या छीन ले इन लड़कियों से भी,
चाकू उठाने की हिम्मत भले न हो,
क़त्ल करने की ताक़त आ ही जाती है!
शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010
सपने....
होश संभाले तो मां बाप ने सजाये,
बचपन से ही घोट घोट के पिलाये,
स्कूल में सब से अव्वल ही रहना,
ध्यान से पढना किसी से न कहना,
कितनी उम्मीदे है तुम से लगायी,
घनटो जाग के राते बितायी,
उन सब का दिल से तुम रखना खयाल,
करने तुम ही को हैं पूरे ओ लाल,
सपने....
अब अच्छी जिंदगी बिताने के लिये,
मोटी पगार की नौकरी पाने के लिये,
जैसे अमावास में चमकती सी रात हो,
ल्ग्जरी कार मिल जाये तो क्या बात हो,
इसी जदो-जहेद में हुये अपनो से दूर,
भीड में भी तन्हाईया भरपूर,
ऐश ओ आराम बस नाम के हैं,
अब लगता हैं किस काम के हैं,
सपने....
परिवार के भी फिर सजने लगे,
ख्वाहीशो के अंबार लगने लगे,
सब की मांगे भुनाने में,
उम्र गुजर गयी निभाने में,
अब समझा ये नाता तोडते नही,
आखिरी सांस तक पीछा छोडते नही,
कभी ख़ुशी कभी गम कह जाते हैं,
कभी पूरे अधूरे रह जाते हैं,
चलो चैन की नींद अब सो जायें,
काश सब के पूरे हो जायें,
सपने....
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
"इक अजनबी से दो बातें"
"इक अजनबी से दो बातें"
उस गुल-अन्दाम(१) अजनबी से इक बात,
एक खूबसूरत सा एहसास बन गयी,
तन्हाई के ज़ख्मो की मुदावा(२) माफिक,
मामूली सी जो लगती थी ख़ास बन गयी,
अधूरी सी थी जो दिल में इक ख्वाहिश,
परदाख्त(३) हुई और वो मेरे पास बन गयी,
हर पल मेरे लिए तेरी ये तवज्जो(४)
टूटती साँसों को जोडती सांस बन गयी,
इंतज़ार है कब मुलाक़ात होगी उस से,
ये दस्त-निगारी(५) मेरे जीने की आस बन गयी,
तुझे देखने की कशिश उस गनजीना(६) सी है,
जो मेरे सफ़र की सब से बड़ी तलाश बन गयी!
******************************************************************************
(१) खूबसूरत (२) औषधि (३) पूर्ण (४) एहमियत (५) चाहत (६) खजाना
******************************************************************************
सोमवार, 27 सितंबर 2010
नाक क्यों अडती है!
सादर नमस्कार!
कल शाम सोनी चैनल पर ३ idiots आ रही थी, मैं भी देख रहा था, उसी वक़्त मेरे एक मित्र ने एक टिपण्णी की, "किस करने में नाक क्यों अडती है?"
ऐसे शायराना अंदाज़ में उन्होंने ये बात कही थी की मैंने सोचा क्यों न अपने हाथ अब हास्य में आजमायें!
उन्ही की एक पंक्ति को ले कर मैंने एक कोशिश की है, आशा है आप सभी को पसंद आएगी!
शीर्षक: नाक क्यों अडती है!
कल शाम मैंने ३ idiots देखी,
एक dialouge सुनने को मिला,
ये किस करने में अक्सर,
नाक हमारी क्यों अडती है,
मन में सोचा रुक जा बेटा,
एक बार किस हो जाने दे,
फिर खुद ही तू देख लीजो,
कैसी खुमारी चढ़ती है,
ये किस तो बेशरम,
चीज़ ही कुछ ऐसी है,
भोले भाले इंसान को ही,
मोह-पाश में जकड़ती है,
और जो शुरू शुरू में,
ख़ुशी ख़ुशी किस करती थी,
थोडा वक़्त गुज़र जाए,
तो हर बात पे अकड़ती है,
बस इक किस के चक्कर में,
कर्जों में हूँ डूबा सा,
बे-गैरत ख्वाहिशों की ये,
लिस्ट तो हर पल बढती है,
किस करने के लालच में,
दुल्हन भी उसे बनाना पड़ा,
क्या करते कसमें जो दी थी,
फिर वो तो निभानी पड़ती है,
शादी से पहले लगते थे,
जो हरे सब्ज़ के बाग़ से,
उन्ही बागों में लगता है,
जैसे हरी भिन्डियाँ सडती हैं,
बेटी न कहते थकती थी,
शादी से पहले छोरी को,
वो माँ-बेटी हर घंटे में,
बिल्ली चूहों सी लडती हैं,
थका मांदा जब ऑफिस से,
सोफे पे आ के गिरता हूँ,
पूरे दिन की वो भरी बैठी,
मुझ पे भारी पड़ती है,
आहें भर भर सोचूँ मैं,
काश वो नाक अड़ी रहती,
ज़रा देर भी हो जाए,
तो शर्ट सूंघने बढती है,
किस कर के भैया मारा गया,
न करता तो अच्छा होता,
उस ज़िल्लत से मैं बच जाता,
जो रोज़ झेलनी पड़ती है,
जो रोज़ झेलनी पड़ती है!
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
एक खूबसूरत एहसास-मोहब्बत!
मामूली किसी के लिए,
और किसी के लिए ख़ास है,
देता किसी को ग़म कभी,
खुशियाँ नुमायाँ(१) भी करे,
जन्नत से भी खूबसूरत ये,
मोहब्बत का एहसास है,
एहसास वो जो ज़ख़्मी दिल को,
मसाफ़त-ए-ख्वाब(२) ले जा कर,
महसूस ये करवा दे के,
वो अब भी तेरे पास है,
एहसास वो जो फासलों में भी,
करीबियत की आब-ए-हयात बनकर,
रूहानियत से यूं मिला दे के,
लगे खुदा भी आस पास है!
**********************************************
(१) प्रदर्शित (२) ख्वाबो की दुनिया में एक दिन का सफ़र
**********************************************
सोमवार, 2 अगस्त 2010
"उस बचपन से तू मिला दे मुझे"
आज की कविता मैं अपनी सभी महिला ब्लॉगर मित्रों को समर्पित कर रहा हूँ! जीवन के कुछ रोचक लम्हों को मैंने कविता में पिरोने की कोशिश की है, आशा करता हूँ की आप सभी को पसंद आएगी! हो सकता है की इस में अभी और गुंजाइश हो, तो सुझाव सादर आमंत्रित हैं!
"उस बचपन से तू मिला दे मुझे"
नाजों में पली और फूलो सी,
बाबुल के अंगना खेली मैं,
क्या माँ बाबा और क्या सखियाँ,
करती सब संग अठखेली मैं,
हर जिद मेरी पूरी होती,
लाडली जो थी अकेली मैं,
जब बढ़ने लगी औ सवाल उठे,
तो बन गयी माँ की सहेली मैं,
उड़ते लम्हों में वो पल आया,
दुल्हन से सजी थी नवेली मैं,
पल भर डोली में ऐसा लगा,
जैसे हो गयी फिर से अकेली मैं,
.
.
अगले दिन आँख खुली खुद को,
इक नयी जगह पाया मैंने,
ता उम्र यहीं पे बसेरा है,
दिल को ये समझाया मैंने,
पहले दिन ही अरमानो को,
ख़्वाबों का पंख लगाया मैंने,
पलकें मूंदी और पल भर में,
खुद को उड़ता पाया मैंने,
छोड़ पुराने रिश्ते - नए,
रिश्तों को अपनाया मैंने,
गुज़रते वक़्त के संग संग,
हर नया किरदार निभाया मैंने,
.
.
कितना अरसा बीत गया,
सब कुछ सपना सा लगता है,
मैं खुद में हूँ या हूँ भी नहीं,
तनहापन अपना लगता है,
रिश्तों में घिरी सी रहती हूँ,
खुद का वजूद कहीं ग़ुम तो नहीं,
आईना देख के बोले मुझे,
क्या हुआ तुम्हे ये तुम तो नहीं,
कोशिश करती हूँ हर लम्हा,
उम्मीदों को मैं निभा पाऊँ,
अपने नाज़ुक से कन्धों पे,
सुख दुःख का बोझ उठा पाऊँ,
.
.
फ़रियाद खुदा में करती हूँ,
कुछ पल का सुकून दिला दे मुझे,
इस जद्दो-जहद में खो जो गया,
उस बचपन से तू मिला दे मुझे,
उस बचपन से तू मिला दे मुझे!
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
तेरी पायल की छम छम!
दोस्तों,
मेरी पुरानी रचना "बेगाने हो गए" पढने के बाद मेरी एक मित्र ने कहा की आप इस बार कुछ ऐसा लिखिए जिस से अपनेपन का एहसास हो माने जब दो प्रेम करने वालों का मिलन हो रहा हो और प्रेमी अपने दिल की बात अपनी प्रेमिका को ज़ाहिर करे!
कोशिश की है मैंने की शायद मैं अपनी इस रचना के साथ इन्साफ कर पाऊँ, बाकी आप सभी की प्रतिक्रिया बताएगी!
तो पेश-ए-खिदमत है:
"तेरी पायल की छम छम"
कितने अरसे के बाद सुनी,
तेरी पायल की छम छम,
हर वक़्त इल्तेजा करते थे,
इंतज़ार हुआ है ख़तम,
तेरे चेहरे को हाथों में ले,
ठगे से रह गए हम,
इस नूरानी रुखसार के आगे,
चाँद भी पड़ गया नम,
दो नैना ये दरिया की तरह,
कहीं डूब न जाएँ हम,
दो लब ये गुलाब की पंखुड़ी से,
इस दिल पे ढाएं सितम,
एहसास तेरा जादुई सा,
पत्थर को कर दे नरम,
तू चलती फिरती नज़्म मेरी,
किस काम की है ये कलम,
हर सू तेरे सजदे में रहूँ,
चाहे सासें बची हों कम,
फ़रियाद खुदा से करता हूँ,
कभी जुदा न हों बस हम!
सोमवार, 19 जुलाई 2010
बेगाने हो गए!
खुशियाँ गर्त और ग़म पहचाने हो गए,
महफ़िल में बैठे भी मुझे लगा ऐसे,
दश्त-ओ-दरिया(२) में मेरे ठिकाने हो गए,
जो कमरे मेरे घर इबादत के लिए थे,
जाने किस तरह से अब मयखाने हो गए,
खूगर(३) तेरी कशिश का मैं पहले ही था,
तेरे ग़म में बस पीने के बहाने हो गए,
ज़माने की रजीलियों(४) की क्या मिसाल दूं,
हर लफ्ज़ जैसे तीर के निशाने हो गए,
इक वक़्त था जो दोस्त भी होते थे साथ में,
खुद के साए भी अब तो बस बेगाने हो गए!
(१) पागल (२) रेत का समंदर (३) आदी (४) मतलबीपन
शनिवार, 26 जून 2010
मेरी पहली पंजाबी रचना!
कृपया तस्वीर पर क्लिक करें!
मंगलवार, 22 जून 2010
सावन के झूलों की तरह!
बस तेज़ हवा और अंधड़ था,
अब लौट बसंत फिर आया है,
तुम भी आओ फूलों की तरह,
डालों पे जो हैं सूने पड़े,
तेरी बाहों को छूने खड़े,
आ के बाहों में तुम ले लो,
उन सावन के झूलों की तरह,
इंतज़ार और अब होता नहीं,
रातों में घंटो सोता नहीं,
पल पल जुदाई का अब तो,
चुभने सा लगा शूलों की तरह,
अब देर न कर खो जाऊंगा,
आगोश-ए-क़ज़ा(१) सो जाऊंगा,
आँचल में समो ले तू मुझको,
उड़ ना जाऊं राह की धूलों की तरह!
********************************************
(१) मौत की बाहों में
********************************************
शुक्रवार, 11 जून 2010
कुछ अधूरे ख्वाब!
तन्हाइयां भी मेरी बढ़ने लगी हैं,
चाँद के सीधे दीदार से भी,
पलकें मेरी अब सिकुड़ने लगी हैं,
किताब में दफ्न तेरी दी हुई कली,
जाने किन पन्नो को पढने लगी है,
सुलगती हुई सी वो तासीर के संग,
हर पत्ती भी उसकी अब सड़ने लगी है,
कोशिश तो की लेकिन थक हार बैठा,
मेरी हिम्मत ही अब मुझसे लड़ने लगी है,
कुछ देखे थे ख्वाब जो रह गए अधूरे,
कुछ तीखी सी कोफ्त है बढने लगी है,
या मिला दे उसे या बुला ले तू मुझको,
बस साँसों की माला बिखरने लगी है,
बस साँसों की माला बिखरने लगी है!
रविवार, 9 मई 2010
माँ खुदा का रूप!
सब से पहले मुझे तू दीखी माँ,
बाकी सब लफ्ज़ तो बाद में फूटे,
"माँ" पहली आयत मैंने सीखी माँ,
जब भी कभी रातों में डर से सिमटा,
तूने आँचल में मुझको समाया था माँ,
कागज़ पे आढी टेढ़ी लकीरों को देख,
मुझे अच्छे से लिखना सिखाया था माँ,
जब भी कोई गलती मैंने थी की,
सबके सामने ही तूने डांटा था माँ,
फिर मेरी पहली कामयाबी को भी,
उन्ही सब के साथ तूने बांटा था माँ,
आज तक जो तूने किया मेरे खातिर,
उसका सबाब क्या बताने से होगा,
कुछ और गर तेरे सजदे में कहूं,
तो सूरज को दिया दिखाना सा होगा,
हमेशा तेरा हाथ मेरे सर पे रहे,
तेरे प्यार की कभी छाँव कभी धूप है,
उसको देखने की अब तमन्ना नहीं है,
बस तू ही मेरे लिए खुदा का रूप है!
शुक्रवार, 7 मई 2010
अल्हान बना लूं मैं!
चुन चुन के उन में मोती इक नज़्म बना लूं मैं,
अफरोज(१) तेरी इन आँखों में इस क़दर डूब जाऊं मैं ,
कुछ और नहीं मदहोशी पे अल्हान(२) बना लूं मैं,
हिचकोले खाती जुल्फों से कुछ तो बिशारत(३) लूं,
हर लफ्ज़ जो छन छन के निकले इक जाल बना लूं मैं,
इतनी तो फजीलत(४) खुदा मेरी आँखों को बख्श दे,
तू अपनी परछाई देखे आईना बना लूं मैं,
गर रुखसार से तू रोशन कर दे अँधेरे पल मेरे,
हर कोने में वो जलती हुई शम्मा को बुझा लूं मैं!
*********************
(१) चमकती हुई (२) मधुर संगीत (३) प्रेरणा (४) महारत
**********************
गुरुवार, 6 मई 2010
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये!
आज किसी ने मुझे एक हास्य कविता भेजी तो मैंने सोचा क्यों न इसे अपने ब्लॉगर मित्रो से सांझा की जाए!
मुझे नहीं मालूम की ये कविता किसने लिखी है सो अगर किसी को पता हो तो कृपा कर के मुझे बताएं जिस से की मैं उनका नाम प्रकाशित कर सकू!
अभी नहीं जानता सो उनकी अनुमति की बिना ही अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ!
**अति महत्तवपूर्ण**
ये कविता किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं कही गयी है, किसी भी व्यक्ति विशेष को भी टार्गेट नहीं किया गया है!
***************************************************************************************************************************************************
तो दोस्तों पेश-ए-खिदमत है.......
"मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये"
तुम एम् ए फर्स्ट डिविजन हो, मैं हुआ मेट्रिक फेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम फौजी अफसर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ,
तुम रबड़ी खीर मलाई हो, मैं तो सत्तू सपरेटा हूँ,
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड़ के नीचे लेटा हूँ,
तुम नयी मारुती लगती हो, मैं स्कूटर लम्ब्रेटा हूँ,
इस कदर अगर हम चुप चुप कर आपस में प्रेम बढ़ाएंगे,
तो इक रोज़ तेरे पापा ज़रूर अमरीश पुरी बन जायेंगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम अरब देश की घोड़ी हो, मैं हूँ गधे की नाल प्रिये,
तुम दीवाली का बोनस हो, मैं भूखो की हड़ताल प्रिये,
तुम हीरे जड़ी तश्तरी हो, मैं अलमूनियम का थाल प्रिये,
तुम चिकन सूप बिरयानी हो, मैं कंकड़ वाली दाल प्रिये,
तुम हिरन चौकड़ी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये,
तुम चन्दन वन की लकड़ी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये,
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मारो मुझे गुलेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं महिषासुर सा हूँ कुरूप, तुम कोमल कंचन काया हो,
मैं तन मन से कांशी राम, तुम महा चंचल माया हो,
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ,
तुम राज घाट का शांति मार्च, मैं हिन्दू मुस्लिम दंगा हूँ,
तुम हो पूनम का ताज महल, मैं काली गुफा अजन्ता की,
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवंता की,
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम ठेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ,
तुम ए. के. सैंतालिस जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ,
तुम चतुर राबड़ी सी जैसी, मैं भोला भाला लालू हूँ,
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिड़ियाघर का भालू हूँ,
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी.पी. सिंह सा खाली हूँ,
तुम हंसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिस मैन की गाली हूँ,
कल जेल अगर हो जाए तो दिलवा देना तुम बेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मै ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पांच सितारा होटल हो,
मै महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड लेबल की बोतल हो,
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कृषि दर्शन की झाडी हूँ,
तुम विश्व सुंदरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाड़ी हूँ,
तुम सोने का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन का हूँ चोंगा,
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंगा,
दस मंजिल से गिर जाऊंगा, मत आगे मुझे धकेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम सत्ता की महारानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ,
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं कुंवारा अटल बिहारी हूँ,
तुम तेंदुलकर का शतक प्रिये, मैं फोल्लो ओन की पारी हूँ,
तुम गेट्ज मटीज कोरोल्ला हो, मैं लेलैंड की लारी हूँ,
मुझको रेफरी ही रहने दो, मत खेलो मुझ से खेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं सोच रहा की रहे हैं कब से, श्रोता मुझ को झेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये!
शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010
यादों के धागे!
फ़रिश्ते मोड़े नहीं जाते,
दूर रह के हर रिश्ता तोड़ दो,
एहसासों के रिश्ते तोड़े नहीं जाते,
दुआ है तुझे भूलने से पहले,
सासें टूट जाएँ मेरी,
इक बार जो टूटे दिल के,
टुकड़े जोड़े नहीं जाते,
हर ज़ख्म सहने की,
हिम्मत जोड़ लेते हैं,
कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं,
खुल्ले छोड़े नहीं जाते,
गर जुदा भी हुए कभी,
बस बदन ही अलग होंगे,
इतने पक्के यादों के धागे,
ज़माना लाख कोशिश कर ले,
कभी तोड़े नहीं जाते...
कभी तोड़े नहीं जाते!
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
नज़र तू आया!
लाख रोका दिल को पर भरता आया,
तन्हाई दूर करने घूमने निकला,
लहरों के साहिल पे खुद को चलता पाया,
गहवारा(१) लहरों से चाँद निकलते देखा,
इक पल को तेरा चेहरा नज़र आया,
आँखें मूँद लहरों से गुजारिश जो की,
हर छींट संग मोतियों का पुलिंदा आया,
चुन चुन के उन में सब से पारसा(२) मोती,
अपने हाथों से तेरे लिए इक हार बनाया,
सोचा नीले समंदर में डूब के देखूं,
अगले ही पल तेरी आँखों का ख़याल आया,
दिल ने फिर बादलों में खोने को जो कहा,
तेरी जुल्फों से खेलने का मन बना आया,
तेरे आने की उम्मीद में पलकें जो मूंदी,
इलाही के रूप में मुझको नज़र तू आया!
*******************************************
(१) हिचकोले खाती (२) पवित्र
*******************************************
गुरुवार, 25 मार्च 2010
ख़्वाबों में लाने के लिए!
नज़र-ए-जाम पिलाने के लिए,
कतरा-ए-आब(१) ही काफी है सादिक,
मुझे होश में लाने के लिए,
अबरू(२) ये तीखी कम नहीं,
हूरे-सल्तनत हिलाने के लिए,
इन्ही से घायल कर मुझको,
वक़्त नहीं तलवार चलाने के लिए,
देर हुई तो कहीं दम न तोड़ दूं,
हकीम मिलता नहीं ज़ख्म सिलाने के लिए,
जो कहीं नागहाँ(३) दूर चला भी जाऊं,
साँसों से छू लेना मुझे जिलाने के लिए,
हर कीमत देने काबिल हूँ मैं,
तुझे न कभी भुलाने के लिए,
चल अब आँखें मूँद लेता हूँ,
सोना तो पड़ेगा तुझे ख़्वाबों में लाने के लिए!
**********************************************
(1) पानी का एक कतरा (२) भोहें (३) दुर्घटनावश **********************************************
बुधवार, 24 मार्च 2010
बुधवार, 17 मार्च 2010
वही कहते हैं!
हर पल तेरे ख्यालों में रहते हैं,
खमदार(१) गेसुओं में खोये हुए,
दिल की उलझने सुलझाते रहते हैं,
ना जाने की इबरत(२) गजरे ने दी थी,
बोले जुल्फों में बादल घने रहते हैं,
मैंने भी फिर चुपके से पूछा ये उसको,
क्या घटायें और पानी संग नहीं रहते हैं,
सन्न सा हुआ मेरे इस नजीर(३) पे,
बोला ये जुमले कहाँ से बहते है,
मोहब्बत ने शायर बना डाला मुझको,
जो लरजता है दिल में वही कहते हैं!
*******************************************
(१) घुंघराले (२) चेतावनी (३) उदाहरण
*******************************************
शुक्रवार, 12 मार्च 2010
सोमवार, 8 मार्च 2010
गुरुवार, 4 मार्च 2010
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
न तू मुझको भूले!
एहतराम(१) में पलकें बिछाए खड़े हैं,
तू आये और इन सर्द आँखों को छू ले,
एजाज़(२) की आरज़ू में शायद इन सूखे,
दरख्तों पे पड़ जाएँ सावन के झूले,
तहम्मुल(३) की हदें मैं तोड़ न बैठूं,
इक पल के लिए भी जो तू दूर हो ले,
बिशारत-ए-आमद(४) जो आ जाए तेरी,
इल्तेजा ये करूँ हर सांस मेरी तू ले,
चल इस तरह तेरी आगोश में रह लूं,
न मैं तुझको भूलूँ न तू मुझको भूले,
खारदार(५) जो वक़्त कभी तुझपे आये,
इलाही ये दिल ही उसे रू-ब-रू ले !
*******************************************************************************
(१) सम्मान (२) चमत्कार (३) धैर्य (४) आने की खुशखबरी (५) मुसीबतों भरा
*******************************************************************************
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
खताएं भुला दे!
कम से कम अब मेरी खताएं भुला दे,
ख़याल-ए-वस्ल(१) की हाफिजा(२) कुछ और जी लूं,
नींद और हो गहरी साया-ए-ज़ुल्फ़ फैला दे,
कुछ ऐसा हो के मुहब्बत कामिल(३) हो मेरी,
चंद बचे पलों में दो पल अपने मिला दे,
राज़-ओ-नियाज़(४) तुझसे करूँ कुछ वक़्त जो मिले,
आगोश में ले और ख़्वाबों में झुला दे,
इक छुअन से तू मेरी यास(५) ज़िन्दगी बदल दे,
कगार-ए-मौत पे बुझती हुई शम्मा जला दे!
**********************************************************************
(१) मिलने के ख्याल (२) मीठी यादें (३) पूरी (४) वो बातें जो बस आशिकों के बीच होती हैं
(५) जिसमें कोई उम्मीद न हो
**********************************************************************
आपका,
सुरेन्द्र!